Mahashivaratri Puja 9th February 1991 Date : Place Delhi Type Puja Hindi & English Speech Language CONTENTS | Transcript 02 - 09 Hindi English Marathi || Translation English 10 - 12 Hindi 13 - 17 Marathi ORIGINAL TRANSCRIPT HINDI TALK शिवजी के लिए कहा जाता है कि वे बहुत सरल हैं और एकदम भोले हैं। इसलिए उनको जानना बहुत कठिन है। कुण्डलिनी का कार्य ही देवी का कार्य है। देवी ही इस चराचर सृष्टि को बनाती हैं और अन्त में आपके अन्दर कुण्डलिनी बनकर शिव तक पहुँचा देती है। शिव का पूजन करते वक्त याद रखना चाहिए कि शिव के गुणधर्म हमारे अन्दर विकसित हुए या नहीं। इसलिए सबसे पहले कुण्डलिनी की गति को समझ लेना चाहिए। जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो सर्वप्रथम वो आपके शरीर को स्वस्थ करती है। क्योंकि शरीर का भी स्वस्थ होना जरूरी है। इसलिए आपका चित्त पहले अपने शरीर पर जाता है । शुरूआत में सभी मुझे अपनी शारीरिक तकलीफों, बीमारियों के बारे में बताते हैं। कुछ हृष्ट पृष्ट लोग अपनी सांसारिक तकलीफ बताते हैं। जब हम लोग जागृत अवस्था में होते हैं। तो हमारा चित्त इन सब चीज़ों की की तरफ आकर्षित रहता है और इससे हम लोग काफ़ी तकलीफ में रहते हैं । जैसे जैसे आप सहजयोग में आयेंगे आप यही पायेंगे कि आप लोग अपने शरीर की सांसारिक चीज़ों की या मानसिक दुःखों की ही चर्चा करते हैं। इसलिए पहले ये व्यवस्था की गई थी कि शरीर की तरफ ध्यान ही नहीं देना चाहिए। उसको कष्ट देना चाहिए। अगर आप पलंग पर सोते हैं तो नीचे उतर कर तख्त पर सोईये। फिर तख्त से आप चटाई पर सोईये। फिर आप जमीन पर सोईये। फिर आप पत्थर पर सोईये। फिर आप दलदल में सोईये। ऐसे अनेक तरह से शरीर को पक्का बनाया जाता था जिससे शरीर बाद में कोई तकलीफ न दे। शरीर का आराम किसी तरह से मान्य न था। जैसे एक रात जागरण में यदि तकलीफ हुई तो सात रात जागरण करो, फिर तकलीफ हुई तो चौबीस रात जागरण करो। उसी प्रकार खाने-पीने का भी। अगर मनुष्य को खाने की बहुत लालसा है तो आप एक दिन उपवास करो, फिर आप सात दिन उपवास करो, फिर आप चालीस दिन उपवास करो। जो आपको चीज़़ पसन्द नहीं हो ऐसी चीज़ आप खाओ। और बाकी सब चीज़ आप छोड़ दो। यहाँ तक कि आप अन्न मत खाओ, सिर्फ फल खाओ, फिर अगर आपको कपड़ों का बहुत शौक है तो आप सादे कपड़े पहनो । फिर आप हल्के कपड़े पहनो । फिर आप | हिमालय पर जाओ और वहाँ पूरे कपड़े उतार कर ठण्ठ में ठिठराओ। इसी प्रकार किसी को नखरा हो कि मुझे अच्छा घर चाहिए। मैं अच्छे घर के बगैर नहीं रह सकता। जैसे आजकल लोगों को बाथरूम अच्छा चाहिये। आजकल तो सब चीजें बहुत जादा आ गयी है। तो उतनी हम लोगों की इच्छायें, प्रवृत्तियाँ बढ़ गयी हैं। तो उधर हमारा चित्त जादा आ गया है। तो कहा जाता था कि अच्छा ठीक है आप बड़े महल में रहते हैं तो अब आप आकर के पहले झोपड़ी में रहो। फिर झोपड़ी में भी बाड़ा लगाते थे। उसमें भी वो अपने को असुरक्षित समझते थे । तो कहा जाता था कि, 'अच्छा, इसमें आप अपने को असुरक्षित समझते हैं, तो ठीक है आप जंगल में आ कर रहो या किसी तीर्थ स्थान में जाओ।' जैसे की कोई निकला तो कांची का आदमी तीर्थ स्थान में जाएगा तो काशी जाएगा और काशी का जाएगा तीर्थ स्थान में तो कांची जाएगा। रास्ते में उसको शेर खा जायेंगे। शेर ने छोड़ा तो सांप काट लेगा । Original Transcript : Hindi सांप ने छोड़ा तो मगर खा जायेगा और जब तक वो वहाँ पहुंचते हैं हज़ार में से एकाध आदमी वहाँ पहुँचेगा। इस तरह से लोगों को छांटते-छांटते और फिर आत्मसाक्षात्कार की बातचीत की जाती थी। सहजयोग में उल्टा हिसाब किताब किया हुआ है। सहजयोग में न तोआपको घर छोड़ना है, न द्वार छोड़ना है, न ही खाना- पीना छोड़ना है, न ही वस्त्र का कोई बन्धन है, आप जैसे हैं ऐसे ही रहें। इसी अवस्था में आपकी कुण्डलिनी जागृत हो जायेगी। कुण्डलिनी इसी स्थिती में जागृत हो जाएगी। पहले तो एक हिरण का चर्म बिछा के उसपे बैठ के, साधना करके फिर आपकी तपश्चर्या होगी। उसके बाद आप बहुत दिन तक भूखे मरियेगा, एकदम आपकी हड्डियाँ निकल आयेगी। तभी फिर परीक्षा होगी, आपको उल्टा टांगा जाएगा। कुएं में डाला जाएगा। दो-तीन बार देखा जाएगा कि किस हालत में आप हैं। उसके बाद अगर आप जिन्दा रह गये तब फिर कहीं जाकर के चर्चा होगी। अब सहजयोग में उल्टा कारभार है। पहले तो हमने ऊपर का शिखर बना दिया। खोल दिया शिखर, सहस्रार खोल दिया और सहस्रार खोल के अब कहा कि आप ही लोग अपने को ठीक करिये। लेकिन तो भी हम लोग समझ नहीं पाते की सहजयोग बहुत ही कठिन चीज़ है। जितनी सरल है उतनी ही कठिन है, शंकर जी जैसे क्योंकि हमारे अन्दर अनेक नाड़ियाँ हैं और उन नाड़ियों को खोलने का एक ही तरीका है कि हमारा चित्त जो है वो इधर- उधर न उलझे। तो सहजयोग में ये तो कोई नहीं बताते कि तुम खाना-पीना छोड़ दो। तुम उपवास करो और तुम जाकर हिमालय में ठण्ड में बैठो। ये कोई नहीं बताता। लेकिन क्या करना चाहिए जिससे हमारी प्रगति हो ? तो सबसे पहले हमें अपनी तरफ अन्तरमन करके विचार करना चाहिए कि यह मैं क्या कर रहा हूँ? जैसे कि अब आप कहीं गये और आपने देखा कि आपको सोने की जगह नहीं मिली, तो फौरन आप शिकायत करना शुरू कर देंगे कि, 'माँ हमें सोने की जगह नहीं मिली।' उस वक्त ये सोचना चाहि, कि 'मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि मैं अपनी शरीर के बारे में चिन्ता कर रहा हूँ कि मुझे सोने की जगह नहीं मिली। मुझे ठीक से जगह नहीं मिली और मैं अपना चित्त इसी में डाले जा रहा हूँ।' अब उस वक्त में ये सोचना चाहिए कि 'अच्छा हुआ कि मुझे जगह नहीं मिली। अब सो जैसे सोना है। अपने शरीर की ओर देखे नहीं । सो अब। यहीं सो। यहीं सोना होगा, तू सहजयोगी है तुझे सोने के लिए अच्छी जगह क्यों चाहिए? दुनिया में कितने लोग हैं जो रास्ते पर सो जाते है। तू कौन बड़ा भारी हो गया कि तुझे सोने के लिए अच्छी जगह चाहिए ? और लोग तो खड़े-खड़े भी सो जाते हैं। तू खड़े-खड़े क्यों नहीं सोता और फिर सोना भी क्या जरूरी है। अपने को समझा क्या है तू?' ऐसे अपने शरीर से प्रश्न पूछना चाहिए। एकदम आफ़त आ जाये कोई एक बार खाना न खाये तो। मैंने देखा है कि आफ़त आ जाती हैं लोगों पर अगर एक बार खाना न मिले। अगर एक दिन खाना नहीं मिले तो बहुत अच्छा सोचना चाहिए 'अच्छा हो गया। में देखता हूँ तुझे क्या होता है तेरा । तू मर जायेगा क्या?' ऐसे शरीर को धिक्कारना चाहिए। खुद ही अपनी तरफ से शरीर को धिक्कारना चाहिए। आजकल तो बहुत ही ज़्यादा शरीर के चोचले निकल आए हैं| जैसे कि ये हमने कपड़ा पहना, तो उसका मैचिंग होना चाहिए। इस तरह की आधुनिक चीजें निकल आई हैं और उसके जो परिमाण है वो इतने ज़्यादा कृत्रिम हैं कि हम लोगों को समझ नहीं आता कि हम लोग इस कृत्रिमता के पूरी तरह से गुलाम हुए जा रहे हैं। इसका मतलब ये नहीं कि आप विक्षिप्त हो जायें । इसका मतलब ये नहीं कि आप अजीब से कपड़े पहन कर घूमिये और इसका मतलब ये भी नहीं कि आप हिप्पी हो जाएं। समझ लीजिए कि किसी र्त्री को एक मैचिंग ब्लाऊज नहीं 3 Original Transcript : Hindi मिला तो उसको तो लगता है कि वो गई काम से, बिल्कुल खत्म। पहले जमाने में कोई मैचिंग पहनता ही नहीं था । अब यदि उसे मैचिंग स्वेटर नहीं मिला तो बस आ गई आफ़त। कौन देखता है आपको कि क्या पहने हैं आप? और आप ऐसी कौन सी विभूति हैं कि आपको देखने से किसी का आज्ञा चक्र खुल जाएगा ? या किसी का कोई यंत्र खुल जायेगा? की कोई ऐसी बात हो जाएगी। कुछ भी नहीं। उल्टे आपको देखने से तो कोई पकड़ ही जायेगा आदमी। कभी-कभी तो मैं आँख झुका के चलती हूँ। लोग कहते हैं कि, 'माँ, आप आँख क्यों झुकाते हों?' ठीक है, चलने दो | लेकिन हिम्मत भी करनी पड़ती है कि भई, ये आँख है इसको तो काम करना ही है और इसके काम बहुत है। लेकिन कलियुग में इतना आघात, इतना तो कभी नहीं हुआ। इसी प्रकार कोई एक भी चीज़ शुरू हो जाए। अब जैसे विलायत में है कि आपके बाल बिल्कुल उलझे होने चाहिए। तो अब सब ऐसे बाल उलझे घूम रहे है। तुम सहजयोगी हो । तुम विशेष लोग हो । तुम ऐसे क्यों कर रहे हो? अपने को पूछना चाहिए कि 'मैं ऐसे क्यों करता हूँ? मैं अपने शरीर का इतना आराम क्यों देखता हूँ? मैं दुनिया के लोगों के साथ अपने को क्यों ऐसे बनाना चाहता हूँ। उसी तरह से मैं क्यों रहना चाहता हूँ। मैं तो एक विशेष हूँ।' पर विशेष कैसे होंगे? अगर आप कहीं गये। तो कमरे में सारे इधर पानी फेंक दिया, हम विशेष हैं। या कहीं भी बैठ के खाना खा लिया, हाथ नहीं धोये, हम विशेष हैं। विशेष का मतलब ये कि आपमें ये जो चित्त की चल-बिचल है उसे रोकना है। चित्त को लीन करना है चैतन्य में। फिर चित्त अगर इधर-उधर जाता रहे तो वो चैतन्य में कैसे लीन | होगा ? आपके हृदय में जहाँ शिव जी का वास है वहाँ चार नाड़ियाँ हैं। उसमें से एक नाड़ी मूलाधार तक जाती है और उससे आगे नर्क है। तो कुछ लोग यही कहते हैं कि इसमें क्या खराबी है? लेकिन आप सहजयोगी हैं, आप नर्क काहे को जा रहे हैं? आपका रास्ता बन गया अब नर्क की ओर क्यों जा रहे हैं? तो अपनी ओर चित्त में ध्यान देना चाहिए कि मुझ ये वासना क्यों हैं मेरे अन्दर ? क्यों हैं? किसलिए? जो मुझे नर्क की ओर ले जा रहे हैं। मैं तो एक कदम ऊपर रखे ए हूँ और एक कदम कब्र में रखे हूँ। या तो कब्र में बैठ जाओ या ऊपर ही रह लो। अब चित्त जो हुए उससे कहना चाहिए कि तू कहाँ भाग रहा है? नर्क की तरफ जाना चाहता है क्या? उसकी दूसरी नाड़ी है, वो नाड़ी हमें इच्छाओं की तरफ ले जाती है। इसलिये बुद्ध ने साफ -साफ कहा था कि कोई भी इच्छा करना यही हमारी मृत्यू का कारण है । इसलिये हम बुढ़े हो जाते हैं और इसलिये हम बीमार पड़ते हैं। क्योंकि हमें इच्छा होती है। इसलिये इच्छा हमारी बिल्कुल खत्म होनी चाहिए। लेकिन वो खत्म नहीं होती। एक शुद्ध इच्छा मात्र रहनी चाहिए । वो कैसे हो? शुद्ध इच्छा इस तरह हो सकती है, कि आप सोचे मुझे इसकी इच्छा क्यों हो रही है? इस इच्छा की ओर मैं क्यों दौड़ा जा रहा हूँ? ऐसी मैंने अनेक इच्छाएं की, उससे मुझे क्या फायदा हुआ। तो जो कुछ भी मिला है उसी में आनन्द पा लेना ही एक सहजयोगी का कर्तव्य है। किसी को इच्छा हुई कि मैं माँ के बिल्कुल सामने जाकर बैठूं या किसी की इच्छा हुई कि हम पहले वहाँ जाकर खड़े हो जायें। ऐसी इच्छा क्यों हुई। क्योंकि अज्ञान में यह नहीं जाना कि माँ हर जगह हैं। कहीं जाने की जरूरत क्या है? तो शुद्ध इच्छा की जब आप इच्छा रखें तो जब कुण्डलिनी चढ़ती है तो ये जो इच्छा की नाड़ी नीचे की तरफ़ मुड़ी हुई है उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। उसमें शुद्ध इच्छा भर जाती है। इच्छा मनुष्य करता है इस विचार से कि इससे मुझे सुख मिलेगा, आनन्द मिलेगा । पर मिलता कुछ नहीं । 4 Original Transcript : Hindi तो इस इच्छा को जो है आपको आनन्द में लीन कर देना चाहिए। क्योंकि शिव का तत्व जो है, आनन्द का तत्व है। उनका स्वभाव आनन्द है। इसलिए हर एक चीज़ में आनन्द खोजना चाहिए। तब किसी चीज़ की त्रुटि ही नहीं लगेगी। दोष देखना या हर एक चीज़ में, ये ऐसा होता तो अच्छा होता, बहुत लोगों की आदत है मैंने देखा। अब रास्ते से जा रहे है, तो कहेंगे कि यहाँ पर उन्होंने फूल क्यों नहीं लगाया? फिर कहेंगे कि यहाँ पर से मार्ग दिखाने का ठीक से क्यों नहीं लगाया? ये रास्ता ऐसे मोड़ पे क्यों नहीं ले आये? अरे बाबा, आप म्युनिसिपाल्टी में हैं? आपको क्या करना है? जो है सो है। आप क्यों बड़बड़ कर रहे हैं? लेकिन दूसरों के बारे में हमेशा कहेंगे। इस में ऐसा करने से ठीक होगा। उसमें ऐसे करने से ठीक होगा। वो जो आप सोच भी रहे हैं वो कार्यान्वित ही नहीं हो सकता। आपका कोई मतलब भी नहीं है उससे। में होता है, सिनेमा में गये। उसमें कोई सीन दिखा रहे हैं, कि एक आदमी जा रहा है अब जैसे बहुत से लोगों और अब वो किसी पहाड़ी से गिरने वाला है। तो लोग कहेंगे, 'अरे अरे, कहाँ जा रहे हैं तुम? गिर जाओगे।' अब वो तो सिनेमा में जा रहा है। वो क्या तुम्हारी बात सुन रहा है क्या? उसी तरह से हर एक चीज़ का ठेका लेकर बैठते हैं और इस तरह से अपनी बुद्धि में भी पूरी तरह एक विचारों की श्रृंखला बना देते हैं। लेकिन जो कुछ आप देखते हैं वो देखना मात्र हो गया। एक कटाक्ष में भी निरीक्षण हो जायेगा और चित्त सा आपके अन्दर बन जाएगा। लेकिन वो देखना नहीं होता। उसे निरंजन देखना कहते हैं । उसमें कोई रंजना नहीं होनी चाहिए। ना उसके प्रति रिअॅक्शन ही नहीं होनी चाहिए। बस देखो, इस रिअॅक्शन का क्या फायदा ? वो ही जैसे मैंने बताया कि सिनेमा में कोई आदमी कुछ कर रहा है। तो कह रहे हैं कि तुम ऐसे मत करो । कोई सुन रहा है क्या तुम्हारा? तो निरंजन देखना ये भी शिव का ही तत्व है। शिव के स्थान पर भी पहुँच गए और उनके मूर्ति के दर्शन भी हो गए, किन्तु जब तक उनका प्रकाश तो सब व्यर्थ ही है। हमारे अन्दर नही आया अब तीसरी नाड़ी है उसमें प्रेम उभरता है। प्रेम माने मेरा बेटा, मेरी बहन, मेरा भाई, मेरा बाप, मेरा पति सब दुनिया भर की रिश्तेदारी। इसमें भी बहुत लोग उलझे रहते हैं। सहजयोग में आने के बाद भी मैं सालों तक देखती हूँ। वो छूटता ही नहीं उनका। वही वही बाते, वही वही बाते। 'मेरे भाई का ऐसा हुआ, तो मेरे बहन का वैसा हुआ, मेरा फलाना ऐसा, मेरा ठिकाना ऐसा। मेरे लड़के ने ऐसा किया, तो लड़की ने ऐसा किया। अब ये कहना कि ये रिश्तेदारी वृथा है, तो ये तो बात ठीक नहीं। तो ऐसा ममत्व कि अपने बच्चों के लिए आप किसी का मर्डर भी कर दें, किसी को खत्म भी कर दें । कुछ भी कर सकते हैं इस ममत्व के लिए। कोई पत्नी के लिए, कोई प्रेयसी के लिए, तो कोई पति के लिए, इस कदर उसमें आदमी अपने जीवन को व्यर्थ करता है और उसके बाद देखते हैं कि जिनके लिए इतना किया वो ही आपके हैं। वो ही आपको सता रहे हैं। सबसे ज्यादा दुःख वो ही दे रहे हैं और दुश्मन आपको और भी ज्यादा दुःख इसलिए होता है कि इन्हीं के लिए हमने इतना किया और इन्होंने हमारे लिए क्या किया? अगर किसी के उपर जरा सा उपकार किया और उन्होंने आपको तकलीफ़ दी तो और भी दु:ख लगता है कि, इसके लिए इतना करने पर इसने ये किया। तो पहले जमाने में कहते थे कि सबको त्याग दो। घर त्यागो, बच्चों को त्यागो, बीबी त्यागो, सब छोड़छाड़ के जंगल में जाकर एकांतवास करो। सहजयोग में ऐसा नहीं है। सहजयोग में ये हैं किसी को नहीं त्यागना है। सबको अपनाना है। क्योकि सहजयोग एक व्यक्तिगत कार्य नहीं कि आप जा कर 5 Original Transcript : Hindi एकान्त में बैठ गए और तपस्या की और बड़े ऊँचे हो गये। तो क्या फ़ायदा हुआ। आप अवधूत बन गये तो क्या फायदा हुआ। एक ऐसा आदमी हो जो अच्छा भाषण दे सकता है। हो सकता है कि थोड़ी बहुत चैतन्य की भी वर्षा कर सकता है। पर उससे सारा संसार तो ठीक नहीं हो सकता। हमें तो सारे संसार को ठीक करना है। तब ये सोचना चाहिए कि मैं क्यों अपनापन सिर्फ थोड़े ही सीमित लोगों में रखता हूँ? अब उसकी भी वजह है । एक साहब थे, कहने लगे, 'वो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने लगे, 'उनके बाल बहुत अच्छे हैं।' तो मैंने कहा कि, 'आपको बाल अच्छे लगते हैं कि वो अच्छे लगते हैं?' फिर कोई कहेंगे कि, 'साहब, वो उनका हमारे साथ बर्ताव बहत अच्छा है।' कोई अगर मिठी - मिठी बातें करते हैं तो वो अच्छे लगते हैं। कोई अगर ऐसे कपड़े पहनते हैं तो वो अच्छे लगते हैं। फिर 'ये हमारे दिल्ली के रहने वाले हैं।' फिर दिल्ली के बाद होगा कि नहीं भाई दिल्ली में तो रहते हैं पर ये पुराने दिल्ली वाले हैं तो और भी नज़दीक। फिर ये सब्जी मंडी के हैं। फिर सब्जी मंडी में जो हमारा बैल हमने जिससे खरीदा था वो और भी नज़दीक हो गये। और पता नहीं कहाँ तक चलता है। इनका नाई और हमारा नाई एक। और बड़े गले मिलेंगे, वा, वा! फिर तो मंबई वाले हैं, दिल्ली वाले हैं, फलाने हैं, ठिकाने हैं। अरे, आप अब विश्व के नागरिक हो गये। अब कहाँ बम्बई, कहाँ दिल्ली और कहाँ मद्रास! ये अगर आपके दिमाग में अभी भी बैठा हुआ है तो अभी आप सहजयोग को समझे नहीं । ये कब होगा? जब आपका ममत्व करूणामय नहीं होता है। करूणा के सागर, दया के सागर। करूणा के सागर में लीन होना चाहिए, तब फिर बराबर समझ में आयेगा कि किसे क्या समझना चाहिए? किस के साथ क्या करना चाहिए? और अछूता कैसे रहना चाहिए? मैंने बहुत बार उदाहरण दिया है आपको की एक पेड़ में गर पानी छोड़िये तो उसका जो सत्व है वो पेड़ के हर शाखा में, हर पत्ते में, हर फूल में, हर फल में जाता है और लौट आता है। और नहीं लौटे तो वो उड़ जाता है। लेकिन अगर वो एक फूल में ही फँस जाये तो वो पेड़ भी मर जायेगा और फूल भी मर जायेगा। तो जिसे निर्वाज्य प्रेम कहते हैं, जो देवी के एक वर्णन में कहा जाता है कि उनका प्रेम निर्वाज्य होता है। और वो जब किसी के लिए कुछ करती हैं तो फिर उन्हें यह नहीं ख्याल रहता कि ये कुछ किया गया या हआ और उसने ऐसे क्यों किया ? ऐसे नहीं करना चाहिए था। हो गया, गया, खत्म| वो चिपकता नहीं दिमाग में। और रात दिन वही गुनगुन नहीं लगी रहती। कोई भी चीज़ में उलझता नहीं मन क्योंकि वो करूणामय हैं। करूणा के सागर में लीन हो गया। और करूणा के सागर में जो लीन हो जाता है वो बस। अब कोई आ गया, उसको कोई तकलीफ है तो इसकी तकलीफ ठीक कर लेकर भी आये, चाहे कुछ करे, ये विचार नहीं आता । तकलीफ हैं न आप ठीक दो। अब वो जा कर बाद में छूरा कर दीजिए। इनको ये परेशानी है नं, ठीक कर दीजिये। हालांकि मैं जानती हूँ कि कुछ कुछ परेशानी में कोई अर्थ नहीं है, लेकिन तो भी बहुत गंभीरता से उसको सुनती हूँ कि, 'भाई क्या परेशानी है, बताओ| हाँ, फिर ऐसा है। फलाना है। छोटी-छोटी चीजें भी कोई बताये।' अपने अपने दायरें से लोग मिलते हैं। उनके दायरे में मैं नहीं उतर पाती। अगर वो मेरे दायरे में नहीं उतर पा रहे हैं तो ये उनका दोष नहीं । उनको उतरना चाहिए। उनको इसी दायरे में उतरना चाहिए, जिसे करूणा कहते हैं। करूणा, करूणा के लिए होती है। वो किसी काम से, किसी मतलब से, किसी रिश्ते से नहीं होती। कोई होगा बड़ा आदमी, Original Transcript : Hindi कोई होगा छोटा आदमी, कोई होगा रास्ते पर पड़ा हुआ भिखारी, कोई भी हो। करूणा ऐसी चीज़ हैं की वो जैसे की कहीं आपने देखा है की समुद्र है, कहीं भी गढ्ढा हो जाये, पानी भर देता है। कहीं भी कोई त्रुटि हो, उसको भर देगा । इस तरह से करूणा का स्वभाव ही है की उसे दिखा की इनको ये तकलीफ हैं, तो अच्छा, चलो इसके आँसू पोंछ दो, उसके आँसू पोंछ दो, उसकी तकलीफ निकाल लो। वो इसलिये नहीं की कुछ उसे माँगना है, लेना है, मतलब नहीं। सिर्फ इसलिये की वो स्वभाव ही है। पानी का स्वभाव, सागर का स्वभाव। तो वो 'स्व' भाव होने के लिए, स्वभाव शब्द भी कितना सुंदर है। स्व माने आत्मा। आत्मा का भाव। जब वो आत्मा का भाव आपके अन्दर आ जाये सिर्फ करूणा, फिर ये सब चीज़ टूट जायेगी कि दिल्ली रहने वाले, बम्बई रहने वाले, फलाना, ठिकाना, कुछ याद नहीं रहता। उसका महत्व नहीं रहता और हर आदमी क्या है वो जरूर आपको याद रहेगा कि ये कौन है? इसको कौनसी तकलीफ है? एकदम देखते ही याद आ जाएगा। नजर आपकी कहाँ गई? नजर अगर यह ढूंढ रही है, कि दिल्ली वाला कौन है, कलकत्ते वाला कौन है। अगर ये नजर आपकी ढूंढ रही है, कि ये करूणा कहाँ बही चली जा रही है। किस की ओर जा रही है भाई ? किसकी ओर खिंच रही है मुझे। तो पता होगा कि कोई दुःखी आदमी है। कोई साधक बहुत बड़ा साधक होता है। एकदम हृदय खिंच जाना चाहिए उस आदमी की तरफ और ये करूणा आपको सुमति भी देती है और स्मृती भी देती है। क्योंकि जितनी निकटता करूणा से आती है, उतनी किसी भी रिश्ते से नहीं आती। ऐसी विशेष चीज़ है करूणा और इस करूणा में अपने को लीन कर लेना। इस ममत्व को लीन कर लेना ही सहजयोग में उन्नति का मार्ग है । क्योंकि मैंने कभी नहीं कहा कि आप अपने बाल-बच्चे छोड़ दो, घर छोड़ दो और घर से निकल के आप अपना जितना पैसा मुझे ला कर दो| घर बेच दो, बिबी को भी बेच दो बच्चों को बेच दो और सब पैसा मुझे दे दो। ऐसे ही कहते हैं न साधु-संत, जो आजकल निकले हैं । लेकिन ये उल्टे हैं। सहजयोग हैं। आप जैसे भी हों जहाँ भी हों, अन्दर ही अन्दर बढ़ते जाओ। वो अन्दर देखे बगैर तो यह नहीं होगा। तो फिर ये सोचना है कि क्या मैं करूणामय हूँ? किसी को अगर कुछ है और उसे यह कहा इस बार नहीं हो सकता, तो बहुत बुरा मान जाते हैं। माने सारा ममत्व अपने ही बारे में हो। 'मुझे क्या मिलना है? मैं क्या पाऊंगा? मुझे क्या लाभ होगा ?' लेकिन ममत्व बाहर नहीं। कौन, किस दशा में, कैसा भी हो करूणा अपना रास्ता खुद ही ढूंढ लेती है बड़ी सुन्दरता से और बड़ा आनन्ददायी है। करूणा का पाना, उसमें बहना और करूरा में अनेक तरह के कार्य होना, आनन्ददायी तो है लेकि उस आनन्द में लोभ नहीं होता कि ये आनन्द मैं बार-बार पाऊं। उसकी प्रचीति, कॉन्शसनेस नहीं होती। कर दिया, कर दिया। हो गया, हो गया। जैसे संगीत को सुन लिया, मजा आ गया, वहीं खत्म हो गया। उसी तरह से कोई काम है, कर दिया, खत्म। लीन हो जाती है। अब चौथी जो हमारे अन्दर नाड़ी है वो अत्यन्त महत्वपूर्ण है हृदय में और वो चौथी नाड़ी कुण्डलिनी के जागरण से ही जागृत होती है और बाईं विशुद्धि से निकल के और मस्तिष्क में जाकर के कमल को खिलाती है। जब हमारा चित्त इन सब चीज़ों में लीन हो जाता है, तो इस कमल में जीव आ जाता है, इसमें शक्ति आ जाती है या ऐसा समझ लीजिए जैसे किसी पौधे में पानी पड़ जाये तो वो जैसे अपने आप बढ़ता है इसी प्रकार ऐसा शुद्ध चित्त जिस मनुष्य का हो जाता है उसके हृदय की कली खिलती है और वो कमल रूप हो कर के सहस्रार में छा जाता है। फिर उसका सौरभ, उसका सुगन्ध चारो ओर फैलता है। और ऐसा मनुष्य एकदम नतमस्तक हो जाता है, एकदम Original Transcript : Hindi नतमस्तक हो कर के सबके सामने झुका रहता है। कोई अगर कहता है कि आपने बड़ा मेरा काम कर दिया, बड़ा चमत्कार कर दिया, तो वो चीज़ उसे छुती नहीं। जैसे कि आनन्द की लहरें बाहर की ओर तट पे जाकर के नाद करती हैं, किंतु वापस नहीं लौटती। उसी प्रकार जिस मनुष्य की ये स्थिति हो जाती है उसका सारा कार्य बाहर को निनाद करता है। आवाज करता है। उसका असर बाहर दिखाई देता है। तट पर। उसके अन्दर उसका कोई भी परिणाम नहीं आता। ख्याल भी नहीं आता, विचार भी नहीं आता। अब आप लोग कभी कभी आपने अभी आगत-स्वागत गाना शुरू किया, तो मैंने सोचा किसी और का कर रहे हैं क्या? में इधर-उधर देख रही थी। किसके लिये गा रहे हैं? किस का स्वागत कर रहे हैं? मुझे डर लगता हैं कि कभी मैं भी आपके साथ गाने न लग जाऊं। कभी आप लोग मेरा जयजयकार करते हैं तब तो मुझे और भी ज्यादा डर लगता हैं कि मैं भी न कहीं 'जय माताजी' शुरू करूँ। वाकई ऐसे। छूता नहीं। जो भी आप कहते हैं, जो भी आपके निनाद हैं वो और दूसरे तट पर जा कर छू जाएंगे| मेरे तक छूते ही नहीं। मुझे आते ही नहीं। उससे हो सकता है, अन्दर बैठे देवी-देवता खुश हो जायें और चैतन्य को बहायें या कुछ करें। उस तट पर पहुँच सकता है। पर जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे कुछ उसका आभास भी कभी नहीं होता कि आप मेरी जयजयकार गा रहे हैं। मैं शायद वहाँ हूँ ही नहीं। ये दशा है शायद। अभी इतनी पोषक ना हो आप लोगों के लिए। लेकिन एक बात जरूर है की आप जब स्तुति गाते हैं, देवता खुश होते हैं, आपके अन्दर के देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं और आपके लिए अनन्त नाड़ियों से कितने तो भी तेज:पुंज ऐसे प्रकाश के किरण आपके अन्दर छोड़ते हैं। फोटोग्राफ्स में देखा होगा आपने। कितनी मेहनत करते हैं आपके लिए। तो आपके लिए भी बहुत आवश्यक है, कि वो जब हमारे लिए इतनी मेहनत कर रहेहैं तो हमें भी इस शुद्धता को पाना चाहिए। तो पहले जिस शरीर को हम धिक्कार रहे हैं, जिसको हम मान नहीं रहे, वो | ही शरीर जा कर के एक यज्ञ हो जाता है। यज्ञ माने ऐसे कि अब हमारा शरीर है, हो रही है तकलीफ, तो ये तो तकलीफ होनी ही है, क्योंकि ये यज्ञ है न! अच्छी बात है। जैसे की काष्ठ का जलना यज्ञ में जरूरी है, उसी तरह इस शरीर का भी जलना यज्ञ में जरूरी है। लेकिन सहजयोग में सबसे बड़ी बात ये हैं कि ये जो कृत युग शुरू हो गया है, आपके पूर्व पूण्य से, आपको तकलीफ होती नहीं खास ! सब चीज़ सामने आ के खड़ी हो जाती है। सब बहुत से साक्षात्कार होते रहता है। आप कहते हैं चमत्कार हो रहा है। सब चीज़ आपको सुलभ में मिल जाती है। बहुत काम आपके सरल-सहज हो जाते हैं। शोभना-सुलभ गति कहा जाता है कि आपके शोभायमान इस तरह के जीवन में अत्यंत सुलभता से आप इसे प्राप्त कर सकते हैं| कोई भी अशुभ काम करने की, अशोभनीय काम करने की जरूरत नहीं। तो ये एक इस तरह की बड़ी सूक्ष्म माया भी है। उसमें यह नहीं सोचना चाहिए कि यह सारे चमत्कार हमारे लिए इसलिये हो रहे हैं क्योंकि हम कोई बड़े भारी सहजयोगी हैं। लेकिन ये सोचना चाहिए कि ये चमत्कार इसलिए हो रहे हैं कि हमारे अन्दर विश्वास -परमात्मा के प्रति, शिव के प्रति और कुण्डलिनी के प्रति दृढ़ हो जायें । इसलिये चमत्कार हो रहे हैं और इसको दृढ़ता से करने का कार्य यही है कि हम अपने चित्त को शुद्ध करें क्योंकि शिव चित्त स्वरूप हैं। उनके चित्त की शक्ति को चित्ती कहते हैं । वो चित्त हैं। माने कि ये जो चैतन्य चारों तरफ हैं, आप जानते हैं, उस चैतन्य का जो चित्त है, वो शिव का प्रसाद है। जो शिव का तत्व है। माने सारे संसार में उनका चित्त फैला हुआ है और जब आप कहते हैं कि चमत्कार हो गया, ये चीज़ घटित हो गई तब ये जान लेना चाहिए कि ये जो चित्त है, जिसे हम चित्ती कहते हैं, उसने ये कार्य किया है । अणु -रेणु हर चीज़ में उनका चित्त है लेकिन चित्त 8. Original Transcript : Hindi का मतलब ये होता है कि वो साक्षी है । देख रहे हैं और कार्यान्वित जो है वो ब्रह्म- चैतन्य है। लेकिन जैसे कि संगीतकार आप देखते हैं, वो सामने को देखकर बजाता है। उसी प्रकार ब्रह्म - चैतन्य उस चित्त की दृष्टि को देख कर ही कार्यान्वित होता है। उस सृष्टि को, उस चित्ती को ब्रह्मचैतन्य जानता है और वो इस कार्य को तब करता है जब उस चित्ती को देख कर उसे वो ठीक समझता है। जैसे कि अभी हम आयें। आते ही एक साहब आये थे, देखते ही एकदम हकपका गये। मुझे देखा, मैंने कुछ कहा नहीं, कुछ नहीं। सिर्फ मुझे देख कर के एकदम सकपका गये। उसी प्रकार, वो कुछ कहें या न कहें क्योंकि ब्रह्मचैतन्य ये देवी की शक्ति है और वो कार्यान्वित है और वो उस देखने वाले को जानती है और उस शक्ति की पूरी समय यही लीला है कि उस देखने वाले को खुश रखना है। इसलिये कभी-कभी आप कहते हैं कि माँ ऐसे गड़बड़ क्यों हो गया। इसलिये हो गया कि वो जो चित्ती थी उसका रुख बदल गया था। अगर आप आज शिव की पूजा कर रहे हैं तो ये मैंने जो चार नाड़ियां बताई हैं उसकी ओर नजर करें। और जिस तरह से मैंने बताया है कि अपने को है किस तरह से इन चार चीज़ों में लीन कर लेना चाहिए चित्त को। यह कोई बड़ी गहन बात नहीं है, लेकिन सूक्ष्म ह औरफिर आप मुझे बताईये कि इस तरह से अन्तर मन कर के जो आपने अपने साथ विचारणा की है, या तपस्या की है, या जो वार्तालाप किया है और जो अपने चित्त को शुद्ध किया है, उससे आप एकदम शिव के सागर में पूरी तरह से डूब गये हैं। ऐसी दशा आप सब पायें यही मेरी एक शुद्ध इच्छा है HINDI TRANSLATION (English Talk) (Scanned from Hindi Chaitanya Lahiri) क र आज का प्रवचन आप सब लोगों के लिए काफी बड़ा था। लोग शिव पूजा के लिए यहाँ आए और अब, जैसे प्रार्थना की गई है, हम यूरोप में, रोम में भी सत्रह तारीख को शिव पूजा करने वाले हैं पश्चिम में कभी शिव पूजा नहीं हुई, इसी कारण मैंने निर्णय किया है कि हम दो पूजाएं करेंगे। यद्यपि इतने शीघ्र एक और आपको अच्छा स्नानागार चाहिए, अच्छा बिस्तर चाहिए और अन्य सभी सुविधा चाहिए, परन्तु यदि आप इसमें मज़ा चाहते हैं तो यह बहुत दिलचस्प है एक मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि आप सब बार में लखनऊ में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ रहने गई । उनके यहाँ केवल एक चारपाई थी। बो अमीर न थे। उनकी सारी जमीदारी समाप्त हो गई थी कहने लगे हमारे पास केवल एक चारपाई है, आप चारपाई पर सोना चाहेंगी या जमीन पर? मैंने कहा, "ठीक है, मैं चारपाई पर सोकर देखती हूँ। वह शिव पूजा करना अत्यन्त कठिन कार्य है। पा् आज मेंने बताया है कि हमारे हृदय में चारपाई नारियल की रस्सी की बनी हुई थी और रस्सियाँ इतनी ढीली थीं कि जमीन को छू रही थीं जहाँ श्री शिव का निवास है, चार नाडियाँ हैं और किस प्रकार हमने अन्तर्वलोकन करना है तथा अपने चित्त को नियन्त्रित करना है। क्योंकि सहजयोग तथा इस पर सोना भी ऐसे ही था जैसे जमीन पर सोना। रात को मैंने बहुत से चूहों को अपने शरीर पर में पूर्ण स्वतन्त्रता है कि हम जैसा चाहें बने। जैसे पहले कहा जाता था, कोई बलिदान करने के लिए दौड़ते हुए पाया। में उन्हें देख रही थी। लोगों को कुछ त्यागने के लिए, हिमालय पर जाने के लिए बहुत चिन्ता हुई, उन्होंने कहा, कि ये चूहे आप पर कपड़े उतारकर ठण्ड में कॉपने के लिए तथा अन्य सभी प्रकार के उपद्रव करने के लिए नहीं कहा हाँ, उसमें से एक तो अभी भी मेरे पैर के नीचे है! वे रेंग रहे हैं और चक्कर लगा रहे हैं। मैंने कहा, कहने लग कि फिर भी आपको घबराहट नहीं हो जाता। शरीर, शरीर के महत्व को कम करना है और इसके लिए आपको चित्त अन्दर स्थापित करके, हर चीज़ में आनन्द प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा । अन्दर चित्त डालना बहुत आसान है क्योंकि आप रही? मैंने कहा, घबराने की कौन सी बात है, मैं तो बस उन्हें देख रही हूँ, मैंने एक साथ इतने अधिक चूहे कभी नहीं देखें। में तो इनका आनन्द ले रही थी। हैं लोग ध्यान धारणा करते हैं। मान लो आप बैलगाड़ी से जा रहे हैं, कोई फिर वे कहने लगे कि आप ऐसी चारपाई पर सो रहीं थी, कहीं कल तुम्हारे शरीर पर दर्द न हो जाए। मैंने व्यक्ति यदि रोल्जरायस पर १ कहा, नहीं नहीं, में तो आनन्द ले रही थी, ये चारपाई अच्छे झूले की तरह से है, इसमें आप झूल चलता है तो हर समय शिकायत करता रहेगा कि ये तो क्या पागलपन है, मुझे क्यों बैलगाडी से जाना है, भयानक, ये, वो। परन्तु कोई बालक यदि बैलगाड़ी से चलेगा तो वह इसका आनन्द उठाएगा। कहेगा कितनी अच्छी चीज है, ऊपर नीचे उछलती है, बहुत अच्छा लगता है, किस प्रकार बैल दौड़ रहे हैं, सुन्दर! बाहर की हर चीज़ को आप अच्छी तरह से देख सकते हैं! क्योंकि वह बालक शिव की तरह से अबोध हैं। जैसे बहुत सकते हैं। ये बहुत अच्छी है, बहुत ही रुचिकर। अगले दिन मैं बिल्कुल तरोताज़ा थी, वे लोग हैरान थे कि मैं कैसे इतनी तरोताज़ा हूँ । हे निड | तो शरीर की ये सब तकलीफें आदि, जिस प्रकार हम हर चीज़ को सुधारते रहते हैं, हर चीज़ के विषय में गिले-शिकवे करते हैं, हर चीज की शिकायत 10 Hindi Translation (English Talk) बार सभी लोंग ऐसा करेंगे और सम्भवतः यही फैशन करते हैं, ये सब मात्र मिथ्या हैं। यदि आप किसी गुरु के पास जाते तो सुझाया जाता कि आपको अत्यन्त कठोर जीवन बिताना होगा। अब आपको इतनी तपस्विता का रूप धारण कर ले। आप यदि इस प्रकार से अपना चित्त डालें, इस प्रकार से कि यह शरीर तपस्या के लिए नहीं है, हवन के लिए है, इसका है? इन सभी चीज़ों को आनन्द के सागर में विलीन उपयोग हवन के लिए होना है, यज्ञ के लिए कर दें, इन सभी सुख-सुविधाओं को आनन्द के होना है, तब आप अपने शरीर को बखूबी कह सागर में विलय कर दें। अब जीवन के ये जो सकते हैं कि अब सुधर जाओ। अत: सर्वप्रथम बनावटी मापदण्ड आ गए हैं, जैसे हमारे बाल विखरे आपने इसकी भर्त्सना करनी है, इसकी सभी हुए होने चाहिए नहीं तो आप पिछड़ गए हैं, फैशन माँगों की भत्त्सना करनी है, केवल तभी यह के साथ चलना आपके लिए जरूरी है, मैं सोचती हूँ परमात्मा के कार्यों में उपयोग करने की चीज़़ बनता है। मैं कहँगी कि भारतीयों की तुलना में पश्चिम के लोग इस मामले में कहीं बेहतर हैं, मैं अवश्य कहूंगी। भारतीय सबसे पहले अच्छे कमरे ले लेते हैं। वो तो इसके लिए लड़ने से भी नहीं चूकते? अब शनै: शनै: उनमें कुछ सुधार हो रहा है परन्तु अब भी कभी-कभी वो इस बात का शिकवा करते हैं, कभी उस बात का। मैं नहीं जानती कि किस प्रकार से, परन्तु ये बात में अवश्य कहूंगी कि पश्चिम में या आस्ट्रेलिया में लोग इन चीजों की चिन्ता नहीं करते। मुझे याद है, हम एक बार गणपति की आवश्यकता नहीं है। अब आपको करना क्या ग . कि ऐसी और बहुत सी मूर्खतापूर्ण चीजें फैशन में हैं और लोग उन्हें इसलिए मानते हैं क्योंकि यही मानदण्ड हैं। आप यदि ऐसा नहीं करते तो लोग सोचते हैं कि यह व्यक्ति ठीक नहीं है या 'ये कितना अजीब व्यक्ति है!" इसका अर्थ ये नहीं है कि आप स्वयं को अजीबोगरीब, हिप्पी या ऐसा ही कुछ गिड और बना लें। ते मछ इन मानदण्डों की अधिक चिन्ता करने की कोई आवश्कता नहीं है। इंग्लैण्ड में मैंने एक दिन देखा कि एक सज्जन बड़े परेशान थे, एक भारतीय ाक पुले गए थे, बहुत समय पूर्व। वहाँ पर सोने के लिए कोई प्रबन्ध न थे क्योंकि एम.टी.डी.सी. ने कमरे खाली नहीं किये थे। उन्होंने अगले दिन कमरे खाली सज्जन। मैंने पूछा, क्या हुआ, तुम इतने परेशान क्यों हो? कहने लगा, "मैंने गलती से मांस खाने के लिए मछली खाने वाला चाकू उपयोग कर लिया।" तो क्या? "सभी लोगों ने मुझे देखा।" मैंने कहा, ठीक है, तुमने वो चाकू किसी को घोंपा तो नहीं। कोई बात नहीं यदि तुमने मछली खाने वाले चाकू से मीट खा लिया। तो आप मछली वाला चाकू ये, वो सारी मूर्खता। आपके मानसिक सन्तुलन की तुलना में ये चीजें अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। तो ये लिप्साएं हैं। सर्वप्रथम तो हम कह सकते हैं कि इच्छा सारी छोटी-छोटी चीजें हमें परेशान कर सकती हैं। है, ये प्राप्त करने की इच्छा, वो प्राप्त करने की इसके विपरीत, मैं कहती, वास्तव में, मैंने खाया क्या? मैंने वास्तव में मछली खाई, बहुत अच्छा। मैंने कोई बन्धन तो तोड़ा। औपचारिक रात्रिभोज की कोई भी जाए तो भी हम सन्तुष्ट नहीं होते। तो हम अपनी प्रथा तो मैंने तोड़ी। तो यह बहुत अच्छा हुआ। अगली इच्छाओं का क्या करें? इन्हें शुद्ध इच्छा में विलीन करने थे तो उनमें से (पश्चिमी सहजयोगी) बहुत से उस रात समुद्र तट पर जाकर सो गए। कहने लगे, "हाँ श्रीमाताजी हमने बहुत आनन्द लिया। पूरा चाँद था। हमने वास्तव में इसका आनन्द लिया।" े उपयोग कीजिए। दूसरी बात ये है कि लोगों में अब भी इच्छा, सभी प्रकार की इच्छाएं। जैसे आपने देखा है इच्छा कभी पूर्ण नहीं होंगी और इच्छा यदि पूर्ण हो 11 Hindi Translation (English Talk) यह आपकी चौथी नाड़ी की पोषण करता है, कर दें, कुण्डलिनी की शुद्ध इच्छा में। जो खिलती है, आपकी बाई विशुद्धि के माध्यम तीसरी बात ये हैं कि हमारे सम्बन्धी भी हैं। ये बात मैंने पश्चिमी लोगों में देखी है विशेष रूप से जब उनके विवाह हो जाते हैं तो मैं नहीं जानती उन्हें से उठती है, आपके सहस्रार में प्रवेश करके कमल का रूप धारण करती है, कमलदल का। तब सहस्रार हृदय की सुगन्ध बिखेरने लगता है। क्या हो जाता है! अचानक वो सोचने लगते हैं कि अब हमारे विवाह हो गए हैं। तो अब वे रोमियो और जूलियट बन गए हैं, उनसे भी 108 गुणे अधिक रोमांचक! और भारतीय बिल्कुल दूसरी ओर हैं। मेरा शक्ति है, इसी चित्त को 'चित्ती' कहते हैं। अभिप्राय ये है कि उनके साथ भी ऐसा ही होता है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि ठीक है, ये एक घटना है, मेरा विवाह हो गया है परन्तु किसी व्यक्ति विशेष में लिप्त नहीं होना चाहिए। जैसा मैंने बहुत बार बताया है, जैसे पेड़ के रस को देखती है- प्रतिक्रिया नहीं करती परन्तु ये चैतन्यकण ऊपर उठाकर पेड़ के सभी हिस्सों का पोषण करके चित्त को इसकी वस्तुस्थिति में देखते हैं और जानते वापिस आना होता है, यदि यह किसी भाग विशेष सें लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ मर जाएगा और उसका इस प्रकार से हृदय और मस्तिष्क का समन्वय घटित होता है। तो ये चित्त स्वयं श्री शिव की सर्वव्यापी शक्ति, चैतन्य के हर कोने में यह चित्त विद्यमान है। जब यह चैतन्य, ये कोने गतिशील होते हैं, तब वास्तव में चित्ती सम्मानित होती है। यह चित्ती जब शान्त होती है तो यह देखती है, मात्र चित्त हैं कि यह क्या है और उसी के अनुरूप ये कार्य करते हैं। वे, श्री शिव, मात्र एक दर्शक हैं जो देवी (आदिशक्ति) के कार्य को देख रहे हैं । केवल वही वह भाग भी मर जाएगा। तो किसी सम्बन्ध में भी, जो भी आपको देना है, अपनी बहन को अपने भाई को, बच्चों को और अपनी पत्नी को, जो भी आपने देना है वो दैना है, परन्तु आपने उनसे लिप्त नहीं होना। तो अपनी लिप्साओं का हम क्या करें? इन्हें करुणा (compassion) में विलीन कर दें। करुणा सागर की तरह है। करुणा का स्वभाव ऐसा है जो कार्यान्वित करें, देवी के कार्य को, ताकि श्री शिव सभी खड्डे भरता है और सभी दोषों को दूर करता है। बस इसके अन्दर प्रवाहित होता दर्शक हैं और यदि वे नाराजू हो जाएं, यदि उन्हें लगे कि मनुष्य उनकी शक्तियों का सम्मान नहीं करते तो वे गतिशील होकर पूरे विश्व को नष्ट कर देते हैं। देवी की पूरी सृष्टि को नष्ट कर देते हैं। अतः यह आवश्यक है कि आप भी उनका साथ दें, इसे प्रसन्न हों और हम आध्यात्मिकता और सौन्दर्य के एक नए विश्व का सृजन कर सकें। परमात्मा आपको धन्य करे। चौथी नाडी आपकी उत्क्रान्ति के लिए है। रूपान्तरित जब आपका चित्त अत्यन्त पवित्र हो जाता है तो 12 MARATHI TRANSLATION (Hindi Talk) (Scanned from Marathi Chaitanya Lahiri) शिवांच्याविषयी असं सांगितले जातं की ते एकदम भोळे आहेत, खूप सरळ आहेत, कुंडलिनौच कार्य जे आहे, ते देवीचं कार्य आहे. देवीच या चराचर सृष्टीची निर्मिती करते आणि शेवटी आपल्यामध्ये कुंडालिनी होऊन शिवापयंत पोहोंचबून देते. शिवांचं आधी कृुण्डलिनीच्याच गतिला समगून घेतले पाहीने. जेन्हां कुण्डलिनीची नागृति होते, त्यावेळी ती सर्वप्रथम आपल्या शरीराला स्वाथ देते. कारण शरीराच स्वास्थ जरूरीचं आहे. आणि यामुळे आपले चित्त पहिल्यांदा आपल्या शरीराकडे जातें. सुरुवातीला सगळे सला हेच सांगतात की मला ही शारिरिक व्यथा आहे, मला हा रोग आहे. किंवा कांही लोक शरिराने हथ्टपुष्ठ असतात, तेव्हां ते मला त्यांची कौटुंबिक व्यथा सांगतात. कारण जेव्हा आपण कोक जागृत अवस्थेमच्ये असतो, तेव्हा आपलं चित, या सर्व गोष्टीकडे आकर्षिलेलं असतं. आणि यामुळे आपण लोक ब्याच त्रासांत असतो. त्यामुळे त्यांना सम्ून घेणं अतिशय कठीण आहे. पूजन होत असतांना शिवांचे गुणधर्म आपल्यामध्ये विकसित आले की नाही. है लक्षांत ठेवले पाहिने. यासांठी सर्वांत जर्स जर्स आपण सहजयोगांत याल, तस तसं आपल्याला हेच दिसेल की आपण आपल्या शरीराची किंवा संसारिवा मोष्टीची किंवा मानसिक दुखाचीच चर्चा करीत असतो. यासांठी पहिल्यांदा ही व्यवस्था केली गेली की शरिराचा पूर्णपणे त्याग केला जाईल. त्याच्याकडे लक्ष देतां नये त्याला कष्ट दिले पाहिजेत जर आपण पलंगावर झोपत असलो तर खाली उतरून आपण लाकडाच्या पलंगावर झोपा. मग त्यावरून आपण चटईवर झोपा. मग आपण जमिनीवर झोपा, मग दगडांवर झोपा. नंतर आपण दलदलीवर झोपा, अशा अनेक प्रकारे शरीराला पक्कं केलं जातं. ज्यायोगे शरीर तर आस देणार नाही कोणल्याही प्रकारे शरीराचबा आराम मान्य केला जात नाही.गस की, एक रात्र जागरण झालं, तर त्रास झाला, तर सात रात्री जागरण करा, मगत्रास झाला तर चौतीस रात्री जागरण कर. तशाच प्रकारे खाण्यापिण्याचे जर माणसाला खाण्याची खूप लालसा आहे, तर आपण एक दिवस वपवास करा, मग सात दिवस उपवास करा, मग चाळीस दिवस उपवास करा. जी गोष्ट आपल्याला आवडत नाही, ती गोष्ट खा. बाकी सर्व गोष्टी आपण सोडून द्या, इध्यवर की, आपण अन्न खाऊं नका, फळविळे खा. मग जर आपल्याला कपडयांचा खूप शोक आहे, तर आपण साधे कपडे वापरा. नंतर आपण हलके कपड़े वापरा. मग हिमालयावर जाआणि तिथे सर्व कपड़े उतरवून थंडीत कुडकुडत रहा. याचप्रकारे कोणाचा असा नखरा असतो की मला चांगलं घर हवं., हल्ली जशा सगळ्या गोष्टी फार जास्त येऊ लागल्या तशा आम्हा लोकांच्या इच्छा आणि प्रवृत्या वाडल्या, आमच चित्त নिथे जास्त लागत जातं. तर असंसांगीतलं होतं की आपण मोठया महालांत राहातां तर आता येऊन आपण झोपडीत रहा. मग झोपडीतही बाज घालत होते, त्यांतही ते आपल्याला असुरक्षित समजत होते, तर आतां तुम्ही जंगलांत येऊन राहा किंवा कोण्या तीर्थक्षेत्री जा, जसा काँचीची व्यक्ति तिर्थक्षेत्राला गेली तर काशीला गाईल, आणि काशीची गेली तर काँचीला जाईल, रस्त्यांत त्याला वाध खाऊन टाकेल, वाघाने सोडलं, तर साप चावेल. सापाने सोडलं, तर मगर खाऊन टाकेल! आणि तिथे पोहोचेपर्यंत हजारांमधून एखादी व्यक्ति तिथे पोहोचेल, अशा रितीने लोकांना कमी कमी करून मग आत्मसाक्षात्काराची विषय काढला. सहजयोगामध्ये उलटा हिशोब केला आहे. सहजयोगांत तुम्हांला ना घर सोडायचें आहे, ना दार, ना खाणं पिर्ण सोडायचं आहे, ना वस्त्रांचा प्रशन तुम्ही समळे जसे आहांत, तसेच राहायचं आहे. आणि यामध्येच तुमच्या कुंडलिनीचे जाप्रण होणार आहे. या स्थितीतच कुंडलिनी जागृत होईल. की पूर्वी मुगाजिन घालून, त्यावर बसून साधना करून मंग तुमची तपम्चर्याव्हायची. मग खूप दिवस उपाशी मरायचं, जोपर्यंत तुमची हार्ड बाहेर यायची, त्यानंतरही तुमची परिक्षा व्हायची, उलटं टांगलं जात होतं, विहीरीत टाकलं जायचं तुम्ही कुठल्या स्थितीत असता है बधीतलं नात होतं. दोन-तीन वेळां पाहौलं जायचं की कशा स्थितीत तुम्ही आहात, त्यानंतर कुठे जाऊन चर्चा ब्हायची! आतं सहनयोगामध्ये उलटा कारमार आहे. पहिल्यांदा तर आम्ही वरचं शिखर तयार केलं. त्यालाउघडलं-सहस्त्रारउघडलं, सहस्त्ार उधडून सांगीतलं की आतां आपण लोकांनीच आपल्याला ठीक करा. तरीसुध्दां आम्ही लोक समजें शकत नाही. सहजयोग फार कठीण गोष्ट आहे. जितकी 13 Marathi Translation (Hindi Talk) सरळ आहे, तितकीच कठीण आहे. कारण आपल्या आंतमध्ये अनेक नाडया आहेत आणि त्या नाडयांना उघडण्याची एकच पध्दत आहे की, आापलं चित्त ने आहे, ते इकड़े तिकडे भटकतां नये. तर, सहजयोगांत हे तर कोणी सांगत नाही, की तुम्ही खाणं पिणं सोडून द्या, तुम्ही उपवास करा आणि हिमालयांत थंडीत बसा. श पण काय केलं पाहीने, ज्यामुळे आपली प्रगती होईल? तर सर्वात आधी आपल्याला आपल्या अंरतमनांत जाऊन विचार केला पाहिजे की है मी काय करतो आहे? जसे आपण कुठे गेलात आणि पाहिलं की आपल्याला झोपायला जागा मिळत नाही, तरताबडतोब आपण जाऊन तकार करायला सुरूवात करणार की श्री माताजी, झोपायला जागा नाही मिळाली त्यावेळी असा विचार केला पाहिने की मी असं कां सांगतो आहे? कारण माइ या शरीराविषयी मी चिंता करतो आहे की, मला झोपयला नागा मिळाली नाही? मला नीट जागा मिळाली नाही आणि मी माझं चित्त त्यांतच घालत चाललो आहे! आतां अशावेळी असा विचार केला पाहिजे की, चांगलं झालं की, मला जागा मिळाली नाही आता झोपा जसे झोपायचे आहे तसे! आतां इथेच झोपा. आपल्या शरीराला झोपण्यासांठी चांगली जागा का पाहिले? जगांत किती लोक आहेत जे रस्त्यावर झोपतात. तूं कोण मोठा लागून गेलास, की तुला झोपायला चांगली जागा पाहिजे. बाकी लोक तर उभ्याउभ्या झोपतात. तूं उभ्याउभ्या कां नाही झोपत? आणि झोपणं सुष्दा काय नरूरी आहे? आपल्याला काय समजतो आहेस तूं? असा प्रश्न शरीराला करा. कोणी एक वेळ जेवलं नाही तर एकदम आपत्ति येणार. जर एक दिवस नेवण मिळालं नाही तर फार चांगलं झालं असा विचार केला पाहिजे. तस्स शरीराला धिक्कारले पाहीने. आज काल तर शरीराचे चोचले फारच जास्त निघाले आहेत जर्स आम्ही हे कपडे घातले तर याचं हे मैचिंग झालं पाहिजे. अशा तऱ्हेच्या आधुनिक गोष्टी निघाल्या आहेत आणि त्याचे जे परिणाम आहेत ते इतके जास्त कृत्रिम आहेत की आपल्याला समजत नाही की आपण लोक या कृत्रिमतेचे पूर्णपणे गुलाम होत चाललो आहोत याचा अर्थ असा नव्हें की आपण विक्षिप्त व्हा. याचा असा अर्थ नाही की की आपण विचित्र कपडे घालून फिराल, आपण हिप्पी व्हाल, असा याचा अर्थनाही, पण समजून घ्या. एखाद्या स्व्रीला एक मॅचिंग ब्लाऊज मिळाला नाही, तर तिला बाटतं ती कामातून गेली! एकदम खतम! पहिल्या जमान्यांत तर कोणी मॅचीग घातलच नव्हतं. आतां तर त्याला मेचिंग स्वेटर मिळालं नाही तर खैर समजा! कोण आपल्याला बघतंय आपण काय घातलंय म्हणून? आणि आपण कोण अशा विभूति लागून गेला की आपल्याला पाहून आज्ञाचक्र उघडेल? उलट आपल्याला बधून कोणा माणसाला पकड़च यायची! कलियुगांत जितका आधात झाला आहे एवढा झाला नाही. अशा प्रकारे एखादी गोष्ट सुरू होते. जशी विलायतेत आहे की आपले केस एकदम उलटे असले पाहिजेत, तर सगळे तसे केस घेऊन फिरतात. पण तुम्ही सहजयोगी आहांत कोणी विशेष आहांत. तुम्ही असं का करता? मी माझ्या शरीराचा इतका विशेष आराम को पाहाता मी तर एक विशेष आहे. विशेषचा अर्थ हा की आपल्या चित्तामध्ये ही नी चलबिचल आहे, तिला धांबावायचं. चित्ताला लीन करायचं चैतन्यामध्ये पण चित जर इकडे तिकडे जात असेल तर ते चैतन्यामध्ये कसे लीन होईल? आपल्या ह्यदयामध्ये, जिथे श्री शिवांचा वास आहे तिथे चार नाडया आहेत. त्यामघून एक नाडी मूलाधारापर्यंत जाते आणि त्याच्यापुढे नरक तर लोगअसंम्हणतात, यांत काय वाईट आहे? पण आपण सहजयोगी आहांत. आपण नरकामध्ये कशाला जाता? तर आपल्या चित्ताकडे लक्ष दिलं पाहिने की, मला ही वासना का आहे? जी मला नरकाकडे घेऊन चालली आहे. मी तर एक पाऊल बर ठेवून आहे आणि एक कबरीमध्ये. त्याची दूसरी नाड़ी आहे, ती नाडी आपल्याला इच्छाकडे घेऊन जाते. म्हणून बुध्दांनी साफसाफ सॉगितलं होतं की कोणतीही इच्छा करणे हेच आपल्या मृत्यूचे कारण आहे. आपली इच्छा बिलकुल संपली पाहिले. पण ती संपत नाही. फक्ति शुष्द इच्छा राहीली पाहिने. ते कसे होणार? शुध्द इच्छा अशा प्रकारे होऊ शकते की, आपण विचार करा, मला अशी इच्छा कां होते? या इच्छेकडे मी का धावतो आहे? अशा मला अनेक इच्छा झाल्या त्याचा मला काय फायदा झाला? तर, ते कांही मिळतंे आहे त्यांतच आनंद मानणं हे एका सहजयोग्याचं कर्तव्य आहे. कोणाला इच्छा झाली की मी आईच्या एकदम जवळ जाऊन बसावं. किंवा कोणाला इच्छा होते की आम्ही पहिल्यांदा तिथे जाऊन उभ रहावं. अशी इच्छा का झाली? कारण अज्ञानीत हे जाणलं नाही की आई प्रत्येक ठिकाणी आहे कुठे जायची गरज काय? तर, शुध्द इच्छेची नेव्हा आपण इच्छा करता, तेव्हां कुडालिनी नेव्हां चढते तेव्हां, ही जी इच्छेची नाडी खालच्या बाजूला झुकलेली असते ती उध्ध्वंगती होते. त्यांत शुष्द इच्छा भरली नाते. इच्छा माणूस करतो था विचाराने की, यावेळी मला सुख मिळेल, आनंद मिळेल, मिळत कांही नाही, 14 Marathi Translation (Hindi Talk) तर, या इच्छेला आपण आनंदामध्ये लीन करायच्च आहे. कारण श्री शिवांचे तत्व जे आहे. त्यांचा स्व्याव 'आनंद' आहे. म्हणून प्रत्येक गोष्टीमध्ये आनंद शोधला पाहिने. तर कोणत्याही गोष्टीचीत्रुटी वाटणार नाही, दोष बघायचे किंवा प्रत्येक गोष्टीमध्येहे असं असतं तर चांगलं होतं, खूप लोकांना संवय आहे. तो जो आपण विचार करीत आहांत असं व्हायला पाहिने, तो कार्यान्वित होऊ शकत नाही. त्याच्याशी जसं, कोणी सिनेमाला जातो, तिथे पहातो की कोणी ढोंगरावरून पडणार आहे. तर सांगतो की, 'अरे, तूं डोगरांवरून पडणार आहेस'. तर तो सिनेमा आहे. तो काय तुमचं बोलणं ऐक शकतो? अशा प्रकारे प्रत्येक गोष्टीचा ठेका घेऊन बसतात. आणि अशा तन्हेने आपल्या बुध्दीमध्ये पूर्णपणे फक्त विचारशृंखला तयार करतात. पण जे काही आपण बघता ते नुसत बघतो, ते नुसतं बघणं आलं. एका कटाक्षांतसुध्दां निरिक्षण होऊन जातें आणि आपल्या आंत चित्ताप्रमाणे होतं. पण ते बघण नसतं. त्याला निरंजन पहाणे म्हणतात. त्यांम्ये कांही रंजन नसतं. त्याबाबतीत कांही प्रतिक्रिया नसते. तर निरंजन बघणं है सुध्दा शिवाचंच तत्व आहे. शिवाच्या स्थानावरही पोहोचल्या आणि त्यांच्या मूर्तिचं दर्शनसुध्दां झालं, पण जो पर्यंत त्यांचा प्रकाश आमच्याआंत आला नाही तर ते सगळे व्यर्थच आहे. आता तिसरी नाडी आहे ज्यामध्ये प्रेम उभारून येतं. 'माझा मुलगा, माझी बहीण, माझे वडिल, माझा नवरा' सगळी जगमराची नाती। यांतही बरेच लोक गुंतून राहातात. सहजयोगांतही वर्षानुवर्षे ते सुटत नाही. त्याच त्याच गोष्टी। आतां है सागावचं की ही नाती व्यर्थ आहेत ही गोष्ट ठोक नाही. तर इतके ममत्व की, आपल्या मुलांसाठी तुम्ही कोणाचा खूनही करून टाकाल- काहीहीकरूं शकाल या ममत्वांसाठी, कोणी पतीसांठी, कोणी पत्नीसाठी अशाप्रकारे माणूस आपलं जीवन व्यर्थ करतो आणि नंतर बघतो की ज्यांच्यासाठी इतकं केलं तेच आपले दुश्मन आहेत. तेच आपल्याला त्रास देत आहेत. सर्वात जास्त दुःख तेच देत आहेत. आणि आपल्याला जास्त दुःख यामुळेच होत की यांच्यासाठी आम्ही इतके केलं आणि यांनी आमच्यासाठी काय केलं? पूर्वीच्या जमान्यांत सांगत होते की सगळयांचा त्याग करा. घराचा त्याग करा. मुलांचा त्याग करा. पत्नीचा त्याग करा. सगळे सोडून जंगलामध्ये जाऊन एकांतवास करा. सहजयोगांमध्ये असं नाही. सहजयोगांमध्ये कोणाचा त्याग करायचा नाही. सगळयांना आपलं करायचे आहे. कारण सहजयोग एक व्यक्तिगत कार्य नाही कीं आपण नाऊन एकांतात बसले आणि तपस्या केलौ आणि खूप उच्च झाले तर काय फायदा झाला ? आपण अवधूत झालांत तर काय फायदा झाला? हा एक असा माणूस असला तर तो चांगलं भाषण देऊ शकतो. असं होऊ शकत की थोडी फार चैतन्याची बर्षा करू शकतां. पण त्यामुळे सारं जग तर ठीक होऊ शकत नाही.आपल्याला तर सारं जण ठीक करायच आहे. तर असा विचार करायचा की मी आपलेपणा फक्त थोडया लोकांमध्ये सिमीत कां करून ठेवतो? एका झाडामध्ये नर पाणी सोडलं, तर त्याचे जे सत्व येत ते झाडाच्या प्रत्येक फांदीमध्ये, प्रत्येक फलांमध्ये, प्रत्येक फळामध्ये जातं आचि परत येतं. आणि परत आलं नाही तर ते उडून जातं. पण जर ते एका फूलांतच अडकलं तर ते फूलही मरेल आणि झाडही. तर ज्याला निव्ध्याज्य प्रेम म्हणतात की, देवी जेव्हां कोणासांठी कांही करते तेव्हा त्यांच्या है लक्षात राहात नाही की है काही केलं होतं, अर्स त्याने का केलं. करायला नको होतं. ते करूणामय आहे. करूणेच्या सागरामध्ये लीन झालं आहे. ज्याला त्रास आहे असं कोणी आलं की तो म्हणतो याचा त्रास ठीक करा, खरं तर मला माहीत असतं काळजी करण्यांत अर्ध नाही पण त्याचे खूप गंभीरतेने ऐकते. त्यांच्या मध्ये मी उतरू शकत नाही.तर तो त्यांचा दोष नाही. त्यांना उतरल पाहिजे. या करूणांमध्ये उतरलं पाहिजे. करूणा करूणेंसाठी असते. कांही काम, कारण अधवा नात्यांसाठी नसते. कोणी असेल मोठी असामी किंवा छोटी व्यक्ति किंवा भिकारी, कोणीही असेल, जसा समुद्र कुठेही खडडा झाला की तो पाणी भरून टाकतो. कुठेही कांही त्रुटी असूंदै, भरून टाकतो. करूणा यासांठी नाही की त्याच्याकडून मागायचं आहे, घ्यायचं आहे. ती यांसाठी की, तो स्वभावच आहे तो स्वभाव असल्याने 'स्व' म्हणजे आत्मा आत्म्याचा भाव. जेव्हां तो आत्म्याचा भाव आपल्यामध्ये येईल-फक्त करूणा. मग या सर्व गोष्टी तूटन जातील की दिल्लीत राहाणारे -मुबंईत राहणारे वगैरे. कांही लक्षात रहात नाही. कांही महत्व राहात नाही. आणि प्रत्येक व्यक्ति कोण आहे है जरूर आपल्या लक्षात रहात. की हा कोण आहे. त्याला कायत्रास आहे, एकदम पाहिल्याबरोबर लक्षांत येईल. आपली नजर कुठे गेली? नजर जर है शोधात असेल की दिल्लीवाला कोण आहे. कलकत्तेवाला कोण आहे, जर ही आपली नजर शोध घेत असेल की करूणा कुठे कुठे चालली आहे. कोणाकडे खेचते आहे मला तर समजेल की दुःखी आहे. कोणी साधक. फार मोठा साधक असतो. एकदम हृदय खेंचलं गेलं पाहिजे त्या व्यक्तिकडे आणि ही करूणा तुम्हांला सुमतिपण देते आणि स्मृतिसुध्दां देते. कारण जितकी निकटता करूणेमुळे येत, तेव्हढी दुसऱ्या कसल्याही नात्याने येत नाही. अशी विशेष गोष्ट आहे करूणा. आणि या करूणेमध्ये 15 Marathi Translation (Hindi Talk) स्वतःला लीन करा. या ममत्वाला लीन करा. हा सहजयोगामध्ये उन्नतिचा मार्ग आहे. कारण मी कधी सांगीतलं नाही. आपली मुलं लोडून द्या, घर सोडून धा. हा सहजयोग आहे. तुम्ही कसेही असला. कुठेही असला आंतल्याआंत वाढत ना. ते आंत पहिल्याशिवाय तर नाही होणार. तर मग असा विचार करायचा की काय मी करूणामय आहे का? कोणाला जर कांही असेल, आणि त्याला सांगीतलं यावेळी होक शकत नाही. खप वाईट बाटून घेतात. म्हणजे सगळ ममत्व स्वतःच्याच बदल, मला काय मिळणार उनाहे? सीकाय मिळवेन?मला काय लाभ होईल. पण ममत्व बाहेर नाही. कोणीही या दरशत, कसंही असूदे करूणा आपला रस्ता स्वतःच शोधून काढते, खूप सुंदररित्या आणि फार आनंददायी आहे करूणा मिळवणं. त्यांत वाहून जाणं. करूणेमध्ये अनेक प्रकारची कार्य होणे. आनंदायीतर आहे पण या आनंदात लोभ असतनाही की हा आनंद मलापरतपरत मिळेल. त्याची नाणीव नसते, केलं. केलं. झालं. झालं. याच प्रकारे जर्स कांही काम आहे. केलं. आतां चौथी नाडी आपल्यानध्ये जी आहे, ती अत्पंतमहत्वपूर्ण आहे. हृदयामध्ये ती चौथी नाडी. कुंडलिनीच्या जागरणानेच नागृत होते. आणि डाव्या विशुष्दीमधून निधून मस्तकांत जाऊन कमळाला उमलबिते. नेव्हा आपलं चित्त या सगळ्या गोष्टीमध्ये लीन होऊन नातं जसा कांही या कमलामध्ये जीव येतो, त्यामध्ये शक्ति येते किंवा असं समजा की, एक झाड़ावर पाणी पडलं तर ते जसं आपोआप वाढते, त्याप्रमाणे असं शुध्द चित्त क्या माणसाचं होतं, त्याच्या हृदयाची कळी उमलते आणि ते कमलरूप होऊन सहस्वावर आच्छाटून राहतं. मग त्याचे तत्त्व, त्याचा सुगंध, चारी बाजूला पसरतो. आणि अशी व्यक्ति एकदम नतमस्तक होऊन जाते. एकदम नतमस्तक होऊन सर्वासमोर वाकूत रहाते. कोणी जर त्याला म्हणाले की तुम्ही माझे मोठे काम केले, मोठा चमत्कार केला तर ती गोष्ट त्याला स्पर्श करीत नाही. जशा आनंदाच्या लाटा बाहेर काठावर जाऊन नाद करतात पण परत येत नाहीत, त्याच प्रकारे ज्या व्यक्तिची ही स्थिती होते त्याचं सारं कार्य बाहेर नाद करते. आवान करते. त्याचा परिणाम बाहेर दिसून येतो. काठावर ह्याच्या आंतमध्ये त्याचा कांही परिणाम येत नाही., ध्यानही येत नाही. विचारही येत नाही. ने काही आपले निनाद आहेत ते दुसऱ्या काठाला नाऊन स्पर्श करतात. मला स्पर्श करीत नाहीत. मला येत नाहीत. त्यामुळे असं होऊ शकतं. आंत बसलेल्या देवीदेवता खुष होतात आणि त्या चैतन्य वाहवं लागतात. किंवा काही तुम्ही माझा जयजयकार गात आहांत. कदाचित मी तिथे नसतेसुध्दां, जेव्हां आपण स्तुति गाता, खुष होतो, आपल्या आंतल्या देवतासुध्दां प्रसन्न होतात आणि आपल्यासाठी अनंत नाडयांमधून कितीतरी, जसे तेज पुंज प्रकाशाचे किरण आपल्यामध्ये सोडतात. किती मेहनत करतात आपल्यांसाठी. तर आपल्यांसाठीपण आवश्यक आहे, की जर आपल्यासाठी एवढी मेहनत करतात. तर आपणही या शुष्दतेला मिळवंले पाहिने. तर पहिल्यांदा जे शरीर ज्याला आपण धिक्कारत होतो. त्याला आपण मानत नव्हतो, तेच शरीर एक बज्ञ होऊन जातं. यज्ञ म्हणजे असा की, आतां आपल शरीर आहे, होतीय त्रास, तर याला त्रास होणारच आहे, कारण हा यज्ञ आहे ना, चांगली गोष्ट आहे. ज्याप्रमाणे यज्ञांसाठी काष्टठांचे जळणं आवश्यक आहे त्याचप्रकारे या शरीराचं चालणं देखील यज्ञामध्ये आवश्यक आहे. सहजयोगामध्ये सर्वांत मोठी गोष्ट ही आहे की, हे जे कृतयुग सुरु झालं, तुमच्या पूर्वपुण्यांमुळे, आपल्याला जास्त त्रास तर काही होतंच नाही. सगळया गोष्टी समोर येऊन उभ्या राहतात सगळा साक्षात्कार होत राहतो. तुम्हीं म्हणतां चमत्कार होत आहे. सगळ्या गोष्टी तुम्हाला सुलभतेने मिळतात. तुमची बहुतेक कामं सरळ सहज होडन जातात. शोभना सुलभा गति ! म्हणजे आपली शोभा आणि मान या प्रकारचा आहे; जीवनांत अत्यंत सुलभ रित्या आपण याला प्राप्त कछ शकता. कोणतंही अशोभनीय काम करण्याची गरज नाही, तर ही एक प्रकारची एक फार सूक्ष्म मायासुद्धा आहे. यांत असा विचार करता नये की हे सगळे चमत्कार आपल्यांसाठी होत आहेत कारण आपण कोणी फार मौठे सहजयोगी आहोत. पण असा विचार कैला पाहिजे आपल्या अंतर्यामी परमात्म्याबद्दल, शिवाबद्दल, कुंडलिनीबद्दल विश्वास दृढ़ होईल. यांसाठी चमत्कार होत आहेत. आणि याला दृढ करण्याचे कारण है आहे की, आपण आपल्या चिताला शुद्ध करायला पाहिजे. कारण शिव चितस्वरूप आहे. त्यांच्या चिताच्या शक्तीला 'चित्ती" म्हणतात. ते चित्त आहे. म्हणजे, ब्या चैतन्याबद्दल आपण जाणता, त्या चैतन्याचं जे चित्त आहे तो श्री शिवांचा प्रसाद आहे. ते शिवाचं तत्व आहे. याचा अर्थ साच्या जगामध्ये त्याचं चित्त पसरलं आहे. आणि जेव्हां.तुम्ही म्हणता, चमत्कार झाला, ही गोष्ट घटित झाली, तेव्हा हे जाणलं पाहिजे, हे जे चित्त आहे, ज्याला आपण चित्ती म्हणतो, त्याने हे कार्य केलं आहे. अणू, रेणू प्रत्येक गोष्टींत त्याचें चित्त आहे. पण चित्ताचा अर्थ असा होतो की ते साक्षी आहेत. पहात आहेत. आणि कार्यान्वित ने आहे ते ब्रह्मचैतन्य आहे. पण जसा संगीतकार समोर बघून वानवितो, तशा प्रकारचं द्रह्मचैतन्य आहे. चित्ताच्या दृष्टीला पाहूनच कार्यान्वित होतं. त्या चितोला ब्रह्मचैतन्य जाणतं. आणि या कार्याला तेव्हा करतो जेव्हा त्या चितीला बघून ते योग्य प 16 Marathi Translation (Hindi Talk) समजतं. ब्रह्मचैतन्य देवीची शक्ति आहे आणि ती कार्यान्वित आहे आणि ती त्या बघणाच्याला जाणते आणि त्या शक्तीची पूर्ण वेळ हीच लीला आहे की त्या बघणाच्याला खूष ठेवायचं आहे. म्हणून कधी कधी तुम्ही म्हणता, की श्रीमाताजी अशी गडबड कां झाली ? अशांसाठी झाली की ती जी चिती होती त्याचं रुप बदललं होतं. जर आपण आज शिवाची पूजा करीत आाहांत तर या मी ज्या चार नाड्या सांगितल्या त्यांच्याकडे लक्ष द्या. आणि ज्या प्रकारे मी तुम्हाला सांगितलं आहे, की कशा प्रकारे आपल्याला या चार गोष्टींमध्ये चित्ताला लीन केलं पाहिने, ही कांही मोठी गोष्ट नाही पण सूक्ष्म आहे. आणि नंतर तुम्ही मला सांगा, या प्रकारे मन आंत करुन स्वतः स्वतःला विचारा. तपस्या केली आहे. वार्तालाप केला आहे आणि जे आपल्या चित्ताला शुद्ध केलं आहे. त्यामुळे आपल्याला एकदम कळेल की तुम्ही शिवाच्या सागरामध्ये पूर्णपणे बुडून गेला होता. आणि अशा दशा आपणा सर्वाची व्हावी, अशीच माझी एक शुद्ध इच्छा आहे. 17 ---------------------- 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page0.txt Mahashivaratri Puja 9th February 1991 Date : Place Delhi Type Puja Hindi & English Speech Language CONTENTS | Transcript 02 - 09 Hindi English Marathi || Translation English 10 - 12 Hindi 13 - 17 Marathi 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page1.txt ORIGINAL TRANSCRIPT HINDI TALK शिवजी के लिए कहा जाता है कि वे बहुत सरल हैं और एकदम भोले हैं। इसलिए उनको जानना बहुत कठिन है। कुण्डलिनी का कार्य ही देवी का कार्य है। देवी ही इस चराचर सृष्टि को बनाती हैं और अन्त में आपके अन्दर कुण्डलिनी बनकर शिव तक पहुँचा देती है। शिव का पूजन करते वक्त याद रखना चाहिए कि शिव के गुणधर्म हमारे अन्दर विकसित हुए या नहीं। इसलिए सबसे पहले कुण्डलिनी की गति को समझ लेना चाहिए। जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो सर्वप्रथम वो आपके शरीर को स्वस्थ करती है। क्योंकि शरीर का भी स्वस्थ होना जरूरी है। इसलिए आपका चित्त पहले अपने शरीर पर जाता है । शुरूआत में सभी मुझे अपनी शारीरिक तकलीफों, बीमारियों के बारे में बताते हैं। कुछ हृष्ट पृष्ट लोग अपनी सांसारिक तकलीफ बताते हैं। जब हम लोग जागृत अवस्था में होते हैं। तो हमारा चित्त इन सब चीज़ों की की तरफ आकर्षित रहता है और इससे हम लोग काफ़ी तकलीफ में रहते हैं । जैसे जैसे आप सहजयोग में आयेंगे आप यही पायेंगे कि आप लोग अपने शरीर की सांसारिक चीज़ों की या मानसिक दुःखों की ही चर्चा करते हैं। इसलिए पहले ये व्यवस्था की गई थी कि शरीर की तरफ ध्यान ही नहीं देना चाहिए। उसको कष्ट देना चाहिए। अगर आप पलंग पर सोते हैं तो नीचे उतर कर तख्त पर सोईये। फिर तख्त से आप चटाई पर सोईये। फिर आप जमीन पर सोईये। फिर आप पत्थर पर सोईये। फिर आप दलदल में सोईये। ऐसे अनेक तरह से शरीर को पक्का बनाया जाता था जिससे शरीर बाद में कोई तकलीफ न दे। शरीर का आराम किसी तरह से मान्य न था। जैसे एक रात जागरण में यदि तकलीफ हुई तो सात रात जागरण करो, फिर तकलीफ हुई तो चौबीस रात जागरण करो। उसी प्रकार खाने-पीने का भी। अगर मनुष्य को खाने की बहुत लालसा है तो आप एक दिन उपवास करो, फिर आप सात दिन उपवास करो, फिर आप चालीस दिन उपवास करो। जो आपको चीज़़ पसन्द नहीं हो ऐसी चीज़ आप खाओ। और बाकी सब चीज़ आप छोड़ दो। यहाँ तक कि आप अन्न मत खाओ, सिर्फ फल खाओ, फिर अगर आपको कपड़ों का बहुत शौक है तो आप सादे कपड़े पहनो । फिर आप हल्के कपड़े पहनो । फिर आप | हिमालय पर जाओ और वहाँ पूरे कपड़े उतार कर ठण्ठ में ठिठराओ। इसी प्रकार किसी को नखरा हो कि मुझे अच्छा घर चाहिए। मैं अच्छे घर के बगैर नहीं रह सकता। जैसे आजकल लोगों को बाथरूम अच्छा चाहिये। आजकल तो सब चीजें बहुत जादा आ गयी है। तो उतनी हम लोगों की इच्छायें, प्रवृत्तियाँ बढ़ गयी हैं। तो उधर हमारा चित्त जादा आ गया है। तो कहा जाता था कि अच्छा ठीक है आप बड़े महल में रहते हैं तो अब आप आकर के पहले झोपड़ी में रहो। फिर झोपड़ी में भी बाड़ा लगाते थे। उसमें भी वो अपने को असुरक्षित समझते थे । तो कहा जाता था कि, 'अच्छा, इसमें आप अपने को असुरक्षित समझते हैं, तो ठीक है आप जंगल में आ कर रहो या किसी तीर्थ स्थान में जाओ।' जैसे की कोई निकला तो कांची का आदमी तीर्थ स्थान में जाएगा तो काशी जाएगा और काशी का जाएगा तीर्थ स्थान में तो कांची जाएगा। रास्ते में उसको शेर खा जायेंगे। शेर ने छोड़ा तो सांप काट लेगा । 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page2.txt Original Transcript : Hindi सांप ने छोड़ा तो मगर खा जायेगा और जब तक वो वहाँ पहुंचते हैं हज़ार में से एकाध आदमी वहाँ पहुँचेगा। इस तरह से लोगों को छांटते-छांटते और फिर आत्मसाक्षात्कार की बातचीत की जाती थी। सहजयोग में उल्टा हिसाब किताब किया हुआ है। सहजयोग में न तोआपको घर छोड़ना है, न द्वार छोड़ना है, न ही खाना- पीना छोड़ना है, न ही वस्त्र का कोई बन्धन है, आप जैसे हैं ऐसे ही रहें। इसी अवस्था में आपकी कुण्डलिनी जागृत हो जायेगी। कुण्डलिनी इसी स्थिती में जागृत हो जाएगी। पहले तो एक हिरण का चर्म बिछा के उसपे बैठ के, साधना करके फिर आपकी तपश्चर्या होगी। उसके बाद आप बहुत दिन तक भूखे मरियेगा, एकदम आपकी हड्डियाँ निकल आयेगी। तभी फिर परीक्षा होगी, आपको उल्टा टांगा जाएगा। कुएं में डाला जाएगा। दो-तीन बार देखा जाएगा कि किस हालत में आप हैं। उसके बाद अगर आप जिन्दा रह गये तब फिर कहीं जाकर के चर्चा होगी। अब सहजयोग में उल्टा कारभार है। पहले तो हमने ऊपर का शिखर बना दिया। खोल दिया शिखर, सहस्रार खोल दिया और सहस्रार खोल के अब कहा कि आप ही लोग अपने को ठीक करिये। लेकिन तो भी हम लोग समझ नहीं पाते की सहजयोग बहुत ही कठिन चीज़ है। जितनी सरल है उतनी ही कठिन है, शंकर जी जैसे क्योंकि हमारे अन्दर अनेक नाड़ियाँ हैं और उन नाड़ियों को खोलने का एक ही तरीका है कि हमारा चित्त जो है वो इधर- उधर न उलझे। तो सहजयोग में ये तो कोई नहीं बताते कि तुम खाना-पीना छोड़ दो। तुम उपवास करो और तुम जाकर हिमालय में ठण्ड में बैठो। ये कोई नहीं बताता। लेकिन क्या करना चाहिए जिससे हमारी प्रगति हो ? तो सबसे पहले हमें अपनी तरफ अन्तरमन करके विचार करना चाहिए कि यह मैं क्या कर रहा हूँ? जैसे कि अब आप कहीं गये और आपने देखा कि आपको सोने की जगह नहीं मिली, तो फौरन आप शिकायत करना शुरू कर देंगे कि, 'माँ हमें सोने की जगह नहीं मिली।' उस वक्त ये सोचना चाहि, कि 'मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि मैं अपनी शरीर के बारे में चिन्ता कर रहा हूँ कि मुझे सोने की जगह नहीं मिली। मुझे ठीक से जगह नहीं मिली और मैं अपना चित्त इसी में डाले जा रहा हूँ।' अब उस वक्त में ये सोचना चाहिए कि 'अच्छा हुआ कि मुझे जगह नहीं मिली। अब सो जैसे सोना है। अपने शरीर की ओर देखे नहीं । सो अब। यहीं सो। यहीं सोना होगा, तू सहजयोगी है तुझे सोने के लिए अच्छी जगह क्यों चाहिए? दुनिया में कितने लोग हैं जो रास्ते पर सो जाते है। तू कौन बड़ा भारी हो गया कि तुझे सोने के लिए अच्छी जगह चाहिए ? और लोग तो खड़े-खड़े भी सो जाते हैं। तू खड़े-खड़े क्यों नहीं सोता और फिर सोना भी क्या जरूरी है। अपने को समझा क्या है तू?' ऐसे अपने शरीर से प्रश्न पूछना चाहिए। एकदम आफ़त आ जाये कोई एक बार खाना न खाये तो। मैंने देखा है कि आफ़त आ जाती हैं लोगों पर अगर एक बार खाना न मिले। अगर एक दिन खाना नहीं मिले तो बहुत अच्छा सोचना चाहिए 'अच्छा हो गया। में देखता हूँ तुझे क्या होता है तेरा । तू मर जायेगा क्या?' ऐसे शरीर को धिक्कारना चाहिए। खुद ही अपनी तरफ से शरीर को धिक्कारना चाहिए। आजकल तो बहुत ही ज़्यादा शरीर के चोचले निकल आए हैं| जैसे कि ये हमने कपड़ा पहना, तो उसका मैचिंग होना चाहिए। इस तरह की आधुनिक चीजें निकल आई हैं और उसके जो परिमाण है वो इतने ज़्यादा कृत्रिम हैं कि हम लोगों को समझ नहीं आता कि हम लोग इस कृत्रिमता के पूरी तरह से गुलाम हुए जा रहे हैं। इसका मतलब ये नहीं कि आप विक्षिप्त हो जायें । इसका मतलब ये नहीं कि आप अजीब से कपड़े पहन कर घूमिये और इसका मतलब ये भी नहीं कि आप हिप्पी हो जाएं। समझ लीजिए कि किसी र्त्री को एक मैचिंग ब्लाऊज नहीं 3 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page3.txt Original Transcript : Hindi मिला तो उसको तो लगता है कि वो गई काम से, बिल्कुल खत्म। पहले जमाने में कोई मैचिंग पहनता ही नहीं था । अब यदि उसे मैचिंग स्वेटर नहीं मिला तो बस आ गई आफ़त। कौन देखता है आपको कि क्या पहने हैं आप? और आप ऐसी कौन सी विभूति हैं कि आपको देखने से किसी का आज्ञा चक्र खुल जाएगा ? या किसी का कोई यंत्र खुल जायेगा? की कोई ऐसी बात हो जाएगी। कुछ भी नहीं। उल्टे आपको देखने से तो कोई पकड़ ही जायेगा आदमी। कभी-कभी तो मैं आँख झुका के चलती हूँ। लोग कहते हैं कि, 'माँ, आप आँख क्यों झुकाते हों?' ठीक है, चलने दो | लेकिन हिम्मत भी करनी पड़ती है कि भई, ये आँख है इसको तो काम करना ही है और इसके काम बहुत है। लेकिन कलियुग में इतना आघात, इतना तो कभी नहीं हुआ। इसी प्रकार कोई एक भी चीज़ शुरू हो जाए। अब जैसे विलायत में है कि आपके बाल बिल्कुल उलझे होने चाहिए। तो अब सब ऐसे बाल उलझे घूम रहे है। तुम सहजयोगी हो । तुम विशेष लोग हो । तुम ऐसे क्यों कर रहे हो? अपने को पूछना चाहिए कि 'मैं ऐसे क्यों करता हूँ? मैं अपने शरीर का इतना आराम क्यों देखता हूँ? मैं दुनिया के लोगों के साथ अपने को क्यों ऐसे बनाना चाहता हूँ। उसी तरह से मैं क्यों रहना चाहता हूँ। मैं तो एक विशेष हूँ।' पर विशेष कैसे होंगे? अगर आप कहीं गये। तो कमरे में सारे इधर पानी फेंक दिया, हम विशेष हैं। या कहीं भी बैठ के खाना खा लिया, हाथ नहीं धोये, हम विशेष हैं। विशेष का मतलब ये कि आपमें ये जो चित्त की चल-बिचल है उसे रोकना है। चित्त को लीन करना है चैतन्य में। फिर चित्त अगर इधर-उधर जाता रहे तो वो चैतन्य में कैसे लीन | होगा ? आपके हृदय में जहाँ शिव जी का वास है वहाँ चार नाड़ियाँ हैं। उसमें से एक नाड़ी मूलाधार तक जाती है और उससे आगे नर्क है। तो कुछ लोग यही कहते हैं कि इसमें क्या खराबी है? लेकिन आप सहजयोगी हैं, आप नर्क काहे को जा रहे हैं? आपका रास्ता बन गया अब नर्क की ओर क्यों जा रहे हैं? तो अपनी ओर चित्त में ध्यान देना चाहिए कि मुझ ये वासना क्यों हैं मेरे अन्दर ? क्यों हैं? किसलिए? जो मुझे नर्क की ओर ले जा रहे हैं। मैं तो एक कदम ऊपर रखे ए हूँ और एक कदम कब्र में रखे हूँ। या तो कब्र में बैठ जाओ या ऊपर ही रह लो। अब चित्त जो हुए उससे कहना चाहिए कि तू कहाँ भाग रहा है? नर्क की तरफ जाना चाहता है क्या? उसकी दूसरी नाड़ी है, वो नाड़ी हमें इच्छाओं की तरफ ले जाती है। इसलिये बुद्ध ने साफ -साफ कहा था कि कोई भी इच्छा करना यही हमारी मृत्यू का कारण है । इसलिये हम बुढ़े हो जाते हैं और इसलिये हम बीमार पड़ते हैं। क्योंकि हमें इच्छा होती है। इसलिये इच्छा हमारी बिल्कुल खत्म होनी चाहिए। लेकिन वो खत्म नहीं होती। एक शुद्ध इच्छा मात्र रहनी चाहिए । वो कैसे हो? शुद्ध इच्छा इस तरह हो सकती है, कि आप सोचे मुझे इसकी इच्छा क्यों हो रही है? इस इच्छा की ओर मैं क्यों दौड़ा जा रहा हूँ? ऐसी मैंने अनेक इच्छाएं की, उससे मुझे क्या फायदा हुआ। तो जो कुछ भी मिला है उसी में आनन्द पा लेना ही एक सहजयोगी का कर्तव्य है। किसी को इच्छा हुई कि मैं माँ के बिल्कुल सामने जाकर बैठूं या किसी की इच्छा हुई कि हम पहले वहाँ जाकर खड़े हो जायें। ऐसी इच्छा क्यों हुई। क्योंकि अज्ञान में यह नहीं जाना कि माँ हर जगह हैं। कहीं जाने की जरूरत क्या है? तो शुद्ध इच्छा की जब आप इच्छा रखें तो जब कुण्डलिनी चढ़ती है तो ये जो इच्छा की नाड़ी नीचे की तरफ़ मुड़ी हुई है उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। उसमें शुद्ध इच्छा भर जाती है। इच्छा मनुष्य करता है इस विचार से कि इससे मुझे सुख मिलेगा, आनन्द मिलेगा । पर मिलता कुछ नहीं । 4 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page4.txt Original Transcript : Hindi तो इस इच्छा को जो है आपको आनन्द में लीन कर देना चाहिए। क्योंकि शिव का तत्व जो है, आनन्द का तत्व है। उनका स्वभाव आनन्द है। इसलिए हर एक चीज़ में आनन्द खोजना चाहिए। तब किसी चीज़ की त्रुटि ही नहीं लगेगी। दोष देखना या हर एक चीज़ में, ये ऐसा होता तो अच्छा होता, बहुत लोगों की आदत है मैंने देखा। अब रास्ते से जा रहे है, तो कहेंगे कि यहाँ पर उन्होंने फूल क्यों नहीं लगाया? फिर कहेंगे कि यहाँ पर से मार्ग दिखाने का ठीक से क्यों नहीं लगाया? ये रास्ता ऐसे मोड़ पे क्यों नहीं ले आये? अरे बाबा, आप म्युनिसिपाल्टी में हैं? आपको क्या करना है? जो है सो है। आप क्यों बड़बड़ कर रहे हैं? लेकिन दूसरों के बारे में हमेशा कहेंगे। इस में ऐसा करने से ठीक होगा। उसमें ऐसे करने से ठीक होगा। वो जो आप सोच भी रहे हैं वो कार्यान्वित ही नहीं हो सकता। आपका कोई मतलब भी नहीं है उससे। में होता है, सिनेमा में गये। उसमें कोई सीन दिखा रहे हैं, कि एक आदमी जा रहा है अब जैसे बहुत से लोगों और अब वो किसी पहाड़ी से गिरने वाला है। तो लोग कहेंगे, 'अरे अरे, कहाँ जा रहे हैं तुम? गिर जाओगे।' अब वो तो सिनेमा में जा रहा है। वो क्या तुम्हारी बात सुन रहा है क्या? उसी तरह से हर एक चीज़ का ठेका लेकर बैठते हैं और इस तरह से अपनी बुद्धि में भी पूरी तरह एक विचारों की श्रृंखला बना देते हैं। लेकिन जो कुछ आप देखते हैं वो देखना मात्र हो गया। एक कटाक्ष में भी निरीक्षण हो जायेगा और चित्त सा आपके अन्दर बन जाएगा। लेकिन वो देखना नहीं होता। उसे निरंजन देखना कहते हैं । उसमें कोई रंजना नहीं होनी चाहिए। ना उसके प्रति रिअॅक्शन ही नहीं होनी चाहिए। बस देखो, इस रिअॅक्शन का क्या फायदा ? वो ही जैसे मैंने बताया कि सिनेमा में कोई आदमी कुछ कर रहा है। तो कह रहे हैं कि तुम ऐसे मत करो । कोई सुन रहा है क्या तुम्हारा? तो निरंजन देखना ये भी शिव का ही तत्व है। शिव के स्थान पर भी पहुँच गए और उनके मूर्ति के दर्शन भी हो गए, किन्तु जब तक उनका प्रकाश तो सब व्यर्थ ही है। हमारे अन्दर नही आया अब तीसरी नाड़ी है उसमें प्रेम उभरता है। प्रेम माने मेरा बेटा, मेरी बहन, मेरा भाई, मेरा बाप, मेरा पति सब दुनिया भर की रिश्तेदारी। इसमें भी बहुत लोग उलझे रहते हैं। सहजयोग में आने के बाद भी मैं सालों तक देखती हूँ। वो छूटता ही नहीं उनका। वही वही बाते, वही वही बाते। 'मेरे भाई का ऐसा हुआ, तो मेरे बहन का वैसा हुआ, मेरा फलाना ऐसा, मेरा ठिकाना ऐसा। मेरे लड़के ने ऐसा किया, तो लड़की ने ऐसा किया। अब ये कहना कि ये रिश्तेदारी वृथा है, तो ये तो बात ठीक नहीं। तो ऐसा ममत्व कि अपने बच्चों के लिए आप किसी का मर्डर भी कर दें, किसी को खत्म भी कर दें । कुछ भी कर सकते हैं इस ममत्व के लिए। कोई पत्नी के लिए, कोई प्रेयसी के लिए, तो कोई पति के लिए, इस कदर उसमें आदमी अपने जीवन को व्यर्थ करता है और उसके बाद देखते हैं कि जिनके लिए इतना किया वो ही आपके हैं। वो ही आपको सता रहे हैं। सबसे ज्यादा दुःख वो ही दे रहे हैं और दुश्मन आपको और भी ज्यादा दुःख इसलिए होता है कि इन्हीं के लिए हमने इतना किया और इन्होंने हमारे लिए क्या किया? अगर किसी के उपर जरा सा उपकार किया और उन्होंने आपको तकलीफ़ दी तो और भी दु:ख लगता है कि, इसके लिए इतना करने पर इसने ये किया। तो पहले जमाने में कहते थे कि सबको त्याग दो। घर त्यागो, बच्चों को त्यागो, बीबी त्यागो, सब छोड़छाड़ के जंगल में जाकर एकांतवास करो। सहजयोग में ऐसा नहीं है। सहजयोग में ये हैं किसी को नहीं त्यागना है। सबको अपनाना है। क्योकि सहजयोग एक व्यक्तिगत कार्य नहीं कि आप जा कर 5 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page5.txt Original Transcript : Hindi एकान्त में बैठ गए और तपस्या की और बड़े ऊँचे हो गये। तो क्या फ़ायदा हुआ। आप अवधूत बन गये तो क्या फायदा हुआ। एक ऐसा आदमी हो जो अच्छा भाषण दे सकता है। हो सकता है कि थोड़ी बहुत चैतन्य की भी वर्षा कर सकता है। पर उससे सारा संसार तो ठीक नहीं हो सकता। हमें तो सारे संसार को ठीक करना है। तब ये सोचना चाहिए कि मैं क्यों अपनापन सिर्फ थोड़े ही सीमित लोगों में रखता हूँ? अब उसकी भी वजह है । एक साहब थे, कहने लगे, 'वो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने लगे, 'उनके बाल बहुत अच्छे हैं।' तो मैंने कहा कि, 'आपको बाल अच्छे लगते हैं कि वो अच्छे लगते हैं?' फिर कोई कहेंगे कि, 'साहब, वो उनका हमारे साथ बर्ताव बहत अच्छा है।' कोई अगर मिठी - मिठी बातें करते हैं तो वो अच्छे लगते हैं। कोई अगर ऐसे कपड़े पहनते हैं तो वो अच्छे लगते हैं। फिर 'ये हमारे दिल्ली के रहने वाले हैं।' फिर दिल्ली के बाद होगा कि नहीं भाई दिल्ली में तो रहते हैं पर ये पुराने दिल्ली वाले हैं तो और भी नज़दीक। फिर ये सब्जी मंडी के हैं। फिर सब्जी मंडी में जो हमारा बैल हमने जिससे खरीदा था वो और भी नज़दीक हो गये। और पता नहीं कहाँ तक चलता है। इनका नाई और हमारा नाई एक। और बड़े गले मिलेंगे, वा, वा! फिर तो मंबई वाले हैं, दिल्ली वाले हैं, फलाने हैं, ठिकाने हैं। अरे, आप अब विश्व के नागरिक हो गये। अब कहाँ बम्बई, कहाँ दिल्ली और कहाँ मद्रास! ये अगर आपके दिमाग में अभी भी बैठा हुआ है तो अभी आप सहजयोग को समझे नहीं । ये कब होगा? जब आपका ममत्व करूणामय नहीं होता है। करूणा के सागर, दया के सागर। करूणा के सागर में लीन होना चाहिए, तब फिर बराबर समझ में आयेगा कि किसे क्या समझना चाहिए? किस के साथ क्या करना चाहिए? और अछूता कैसे रहना चाहिए? मैंने बहुत बार उदाहरण दिया है आपको की एक पेड़ में गर पानी छोड़िये तो उसका जो सत्व है वो पेड़ के हर शाखा में, हर पत्ते में, हर फूल में, हर फल में जाता है और लौट आता है। और नहीं लौटे तो वो उड़ जाता है। लेकिन अगर वो एक फूल में ही फँस जाये तो वो पेड़ भी मर जायेगा और फूल भी मर जायेगा। तो जिसे निर्वाज्य प्रेम कहते हैं, जो देवी के एक वर्णन में कहा जाता है कि उनका प्रेम निर्वाज्य होता है। और वो जब किसी के लिए कुछ करती हैं तो फिर उन्हें यह नहीं ख्याल रहता कि ये कुछ किया गया या हआ और उसने ऐसे क्यों किया ? ऐसे नहीं करना चाहिए था। हो गया, गया, खत्म| वो चिपकता नहीं दिमाग में। और रात दिन वही गुनगुन नहीं लगी रहती। कोई भी चीज़ में उलझता नहीं मन क्योंकि वो करूणामय हैं। करूणा के सागर में लीन हो गया। और करूणा के सागर में जो लीन हो जाता है वो बस। अब कोई आ गया, उसको कोई तकलीफ है तो इसकी तकलीफ ठीक कर लेकर भी आये, चाहे कुछ करे, ये विचार नहीं आता । तकलीफ हैं न आप ठीक दो। अब वो जा कर बाद में छूरा कर दीजिए। इनको ये परेशानी है नं, ठीक कर दीजिये। हालांकि मैं जानती हूँ कि कुछ कुछ परेशानी में कोई अर्थ नहीं है, लेकिन तो भी बहुत गंभीरता से उसको सुनती हूँ कि, 'भाई क्या परेशानी है, बताओ| हाँ, फिर ऐसा है। फलाना है। छोटी-छोटी चीजें भी कोई बताये।' अपने अपने दायरें से लोग मिलते हैं। उनके दायरे में मैं नहीं उतर पाती। अगर वो मेरे दायरे में नहीं उतर पा रहे हैं तो ये उनका दोष नहीं । उनको उतरना चाहिए। उनको इसी दायरे में उतरना चाहिए, जिसे करूणा कहते हैं। करूणा, करूणा के लिए होती है। वो किसी काम से, किसी मतलब से, किसी रिश्ते से नहीं होती। कोई होगा बड़ा आदमी, 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page6.txt Original Transcript : Hindi कोई होगा छोटा आदमी, कोई होगा रास्ते पर पड़ा हुआ भिखारी, कोई भी हो। करूणा ऐसी चीज़ हैं की वो जैसे की कहीं आपने देखा है की समुद्र है, कहीं भी गढ्ढा हो जाये, पानी भर देता है। कहीं भी कोई त्रुटि हो, उसको भर देगा । इस तरह से करूणा का स्वभाव ही है की उसे दिखा की इनको ये तकलीफ हैं, तो अच्छा, चलो इसके आँसू पोंछ दो, उसके आँसू पोंछ दो, उसकी तकलीफ निकाल लो। वो इसलिये नहीं की कुछ उसे माँगना है, लेना है, मतलब नहीं। सिर्फ इसलिये की वो स्वभाव ही है। पानी का स्वभाव, सागर का स्वभाव। तो वो 'स्व' भाव होने के लिए, स्वभाव शब्द भी कितना सुंदर है। स्व माने आत्मा। आत्मा का भाव। जब वो आत्मा का भाव आपके अन्दर आ जाये सिर्फ करूणा, फिर ये सब चीज़ टूट जायेगी कि दिल्ली रहने वाले, बम्बई रहने वाले, फलाना, ठिकाना, कुछ याद नहीं रहता। उसका महत्व नहीं रहता और हर आदमी क्या है वो जरूर आपको याद रहेगा कि ये कौन है? इसको कौनसी तकलीफ है? एकदम देखते ही याद आ जाएगा। नजर आपकी कहाँ गई? नजर अगर यह ढूंढ रही है, कि दिल्ली वाला कौन है, कलकत्ते वाला कौन है। अगर ये नजर आपकी ढूंढ रही है, कि ये करूणा कहाँ बही चली जा रही है। किस की ओर जा रही है भाई ? किसकी ओर खिंच रही है मुझे। तो पता होगा कि कोई दुःखी आदमी है। कोई साधक बहुत बड़ा साधक होता है। एकदम हृदय खिंच जाना चाहिए उस आदमी की तरफ और ये करूणा आपको सुमति भी देती है और स्मृती भी देती है। क्योंकि जितनी निकटता करूणा से आती है, उतनी किसी भी रिश्ते से नहीं आती। ऐसी विशेष चीज़ है करूणा और इस करूणा में अपने को लीन कर लेना। इस ममत्व को लीन कर लेना ही सहजयोग में उन्नति का मार्ग है । क्योंकि मैंने कभी नहीं कहा कि आप अपने बाल-बच्चे छोड़ दो, घर छोड़ दो और घर से निकल के आप अपना जितना पैसा मुझे ला कर दो| घर बेच दो, बिबी को भी बेच दो बच्चों को बेच दो और सब पैसा मुझे दे दो। ऐसे ही कहते हैं न साधु-संत, जो आजकल निकले हैं । लेकिन ये उल्टे हैं। सहजयोग हैं। आप जैसे भी हों जहाँ भी हों, अन्दर ही अन्दर बढ़ते जाओ। वो अन्दर देखे बगैर तो यह नहीं होगा। तो फिर ये सोचना है कि क्या मैं करूणामय हूँ? किसी को अगर कुछ है और उसे यह कहा इस बार नहीं हो सकता, तो बहुत बुरा मान जाते हैं। माने सारा ममत्व अपने ही बारे में हो। 'मुझे क्या मिलना है? मैं क्या पाऊंगा? मुझे क्या लाभ होगा ?' लेकिन ममत्व बाहर नहीं। कौन, किस दशा में, कैसा भी हो करूणा अपना रास्ता खुद ही ढूंढ लेती है बड़ी सुन्दरता से और बड़ा आनन्ददायी है। करूणा का पाना, उसमें बहना और करूरा में अनेक तरह के कार्य होना, आनन्ददायी तो है लेकि उस आनन्द में लोभ नहीं होता कि ये आनन्द मैं बार-बार पाऊं। उसकी प्रचीति, कॉन्शसनेस नहीं होती। कर दिया, कर दिया। हो गया, हो गया। जैसे संगीत को सुन लिया, मजा आ गया, वहीं खत्म हो गया। उसी तरह से कोई काम है, कर दिया, खत्म। लीन हो जाती है। अब चौथी जो हमारे अन्दर नाड़ी है वो अत्यन्त महत्वपूर्ण है हृदय में और वो चौथी नाड़ी कुण्डलिनी के जागरण से ही जागृत होती है और बाईं विशुद्धि से निकल के और मस्तिष्क में जाकर के कमल को खिलाती है। जब हमारा चित्त इन सब चीज़ों में लीन हो जाता है, तो इस कमल में जीव आ जाता है, इसमें शक्ति आ जाती है या ऐसा समझ लीजिए जैसे किसी पौधे में पानी पड़ जाये तो वो जैसे अपने आप बढ़ता है इसी प्रकार ऐसा शुद्ध चित्त जिस मनुष्य का हो जाता है उसके हृदय की कली खिलती है और वो कमल रूप हो कर के सहस्रार में छा जाता है। फिर उसका सौरभ, उसका सुगन्ध चारो ओर फैलता है। और ऐसा मनुष्य एकदम नतमस्तक हो जाता है, एकदम 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page7.txt Original Transcript : Hindi नतमस्तक हो कर के सबके सामने झुका रहता है। कोई अगर कहता है कि आपने बड़ा मेरा काम कर दिया, बड़ा चमत्कार कर दिया, तो वो चीज़ उसे छुती नहीं। जैसे कि आनन्द की लहरें बाहर की ओर तट पे जाकर के नाद करती हैं, किंतु वापस नहीं लौटती। उसी प्रकार जिस मनुष्य की ये स्थिति हो जाती है उसका सारा कार्य बाहर को निनाद करता है। आवाज करता है। उसका असर बाहर दिखाई देता है। तट पर। उसके अन्दर उसका कोई भी परिणाम नहीं आता। ख्याल भी नहीं आता, विचार भी नहीं आता। अब आप लोग कभी कभी आपने अभी आगत-स्वागत गाना शुरू किया, तो मैंने सोचा किसी और का कर रहे हैं क्या? में इधर-उधर देख रही थी। किसके लिये गा रहे हैं? किस का स्वागत कर रहे हैं? मुझे डर लगता हैं कि कभी मैं भी आपके साथ गाने न लग जाऊं। कभी आप लोग मेरा जयजयकार करते हैं तब तो मुझे और भी ज्यादा डर लगता हैं कि मैं भी न कहीं 'जय माताजी' शुरू करूँ। वाकई ऐसे। छूता नहीं। जो भी आप कहते हैं, जो भी आपके निनाद हैं वो और दूसरे तट पर जा कर छू जाएंगे| मेरे तक छूते ही नहीं। मुझे आते ही नहीं। उससे हो सकता है, अन्दर बैठे देवी-देवता खुश हो जायें और चैतन्य को बहायें या कुछ करें। उस तट पर पहुँच सकता है। पर जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे कुछ उसका आभास भी कभी नहीं होता कि आप मेरी जयजयकार गा रहे हैं। मैं शायद वहाँ हूँ ही नहीं। ये दशा है शायद। अभी इतनी पोषक ना हो आप लोगों के लिए। लेकिन एक बात जरूर है की आप जब स्तुति गाते हैं, देवता खुश होते हैं, आपके अन्दर के देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं और आपके लिए अनन्त नाड़ियों से कितने तो भी तेज:पुंज ऐसे प्रकाश के किरण आपके अन्दर छोड़ते हैं। फोटोग्राफ्स में देखा होगा आपने। कितनी मेहनत करते हैं आपके लिए। तो आपके लिए भी बहुत आवश्यक है, कि वो जब हमारे लिए इतनी मेहनत कर रहेहैं तो हमें भी इस शुद्धता को पाना चाहिए। तो पहले जिस शरीर को हम धिक्कार रहे हैं, जिसको हम मान नहीं रहे, वो | ही शरीर जा कर के एक यज्ञ हो जाता है। यज्ञ माने ऐसे कि अब हमारा शरीर है, हो रही है तकलीफ, तो ये तो तकलीफ होनी ही है, क्योंकि ये यज्ञ है न! अच्छी बात है। जैसे की काष्ठ का जलना यज्ञ में जरूरी है, उसी तरह इस शरीर का भी जलना यज्ञ में जरूरी है। लेकिन सहजयोग में सबसे बड़ी बात ये हैं कि ये जो कृत युग शुरू हो गया है, आपके पूर्व पूण्य से, आपको तकलीफ होती नहीं खास ! सब चीज़ सामने आ के खड़ी हो जाती है। सब बहुत से साक्षात्कार होते रहता है। आप कहते हैं चमत्कार हो रहा है। सब चीज़ आपको सुलभ में मिल जाती है। बहुत काम आपके सरल-सहज हो जाते हैं। शोभना-सुलभ गति कहा जाता है कि आपके शोभायमान इस तरह के जीवन में अत्यंत सुलभता से आप इसे प्राप्त कर सकते हैं| कोई भी अशुभ काम करने की, अशोभनीय काम करने की जरूरत नहीं। तो ये एक इस तरह की बड़ी सूक्ष्म माया भी है। उसमें यह नहीं सोचना चाहिए कि यह सारे चमत्कार हमारे लिए इसलिये हो रहे हैं क्योंकि हम कोई बड़े भारी सहजयोगी हैं। लेकिन ये सोचना चाहिए कि ये चमत्कार इसलिए हो रहे हैं कि हमारे अन्दर विश्वास -परमात्मा के प्रति, शिव के प्रति और कुण्डलिनी के प्रति दृढ़ हो जायें । इसलिये चमत्कार हो रहे हैं और इसको दृढ़ता से करने का कार्य यही है कि हम अपने चित्त को शुद्ध करें क्योंकि शिव चित्त स्वरूप हैं। उनके चित्त की शक्ति को चित्ती कहते हैं । वो चित्त हैं। माने कि ये जो चैतन्य चारों तरफ हैं, आप जानते हैं, उस चैतन्य का जो चित्त है, वो शिव का प्रसाद है। जो शिव का तत्व है। माने सारे संसार में उनका चित्त फैला हुआ है और जब आप कहते हैं कि चमत्कार हो गया, ये चीज़ घटित हो गई तब ये जान लेना चाहिए कि ये जो चित्त है, जिसे हम चित्ती कहते हैं, उसने ये कार्य किया है । अणु -रेणु हर चीज़ में उनका चित्त है लेकिन चित्त 8. 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page8.txt Original Transcript : Hindi का मतलब ये होता है कि वो साक्षी है । देख रहे हैं और कार्यान्वित जो है वो ब्रह्म- चैतन्य है। लेकिन जैसे कि संगीतकार आप देखते हैं, वो सामने को देखकर बजाता है। उसी प्रकार ब्रह्म - चैतन्य उस चित्त की दृष्टि को देख कर ही कार्यान्वित होता है। उस सृष्टि को, उस चित्ती को ब्रह्मचैतन्य जानता है और वो इस कार्य को तब करता है जब उस चित्ती को देख कर उसे वो ठीक समझता है। जैसे कि अभी हम आयें। आते ही एक साहब आये थे, देखते ही एकदम हकपका गये। मुझे देखा, मैंने कुछ कहा नहीं, कुछ नहीं। सिर्फ मुझे देख कर के एकदम सकपका गये। उसी प्रकार, वो कुछ कहें या न कहें क्योंकि ब्रह्मचैतन्य ये देवी की शक्ति है और वो कार्यान्वित है और वो उस देखने वाले को जानती है और उस शक्ति की पूरी समय यही लीला है कि उस देखने वाले को खुश रखना है। इसलिये कभी-कभी आप कहते हैं कि माँ ऐसे गड़बड़ क्यों हो गया। इसलिये हो गया कि वो जो चित्ती थी उसका रुख बदल गया था। अगर आप आज शिव की पूजा कर रहे हैं तो ये मैंने जो चार नाड़ियां बताई हैं उसकी ओर नजर करें। और जिस तरह से मैंने बताया है कि अपने को है किस तरह से इन चार चीज़ों में लीन कर लेना चाहिए चित्त को। यह कोई बड़ी गहन बात नहीं है, लेकिन सूक्ष्म ह औरफिर आप मुझे बताईये कि इस तरह से अन्तर मन कर के जो आपने अपने साथ विचारणा की है, या तपस्या की है, या जो वार्तालाप किया है और जो अपने चित्त को शुद्ध किया है, उससे आप एकदम शिव के सागर में पूरी तरह से डूब गये हैं। ऐसी दशा आप सब पायें यही मेरी एक शुद्ध इच्छा है 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page9.txt HINDI TRANSLATION (English Talk) (Scanned from Hindi Chaitanya Lahiri) क र आज का प्रवचन आप सब लोगों के लिए काफी बड़ा था। लोग शिव पूजा के लिए यहाँ आए और अब, जैसे प्रार्थना की गई है, हम यूरोप में, रोम में भी सत्रह तारीख को शिव पूजा करने वाले हैं पश्चिम में कभी शिव पूजा नहीं हुई, इसी कारण मैंने निर्णय किया है कि हम दो पूजाएं करेंगे। यद्यपि इतने शीघ्र एक और आपको अच्छा स्नानागार चाहिए, अच्छा बिस्तर चाहिए और अन्य सभी सुविधा चाहिए, परन्तु यदि आप इसमें मज़ा चाहते हैं तो यह बहुत दिलचस्प है एक मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि आप सब बार में लखनऊ में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ रहने गई । उनके यहाँ केवल एक चारपाई थी। बो अमीर न थे। उनकी सारी जमीदारी समाप्त हो गई थी कहने लगे हमारे पास केवल एक चारपाई है, आप चारपाई पर सोना चाहेंगी या जमीन पर? मैंने कहा, "ठीक है, मैं चारपाई पर सोकर देखती हूँ। वह शिव पूजा करना अत्यन्त कठिन कार्य है। पा् आज मेंने बताया है कि हमारे हृदय में चारपाई नारियल की रस्सी की बनी हुई थी और रस्सियाँ इतनी ढीली थीं कि जमीन को छू रही थीं जहाँ श्री शिव का निवास है, चार नाडियाँ हैं और किस प्रकार हमने अन्तर्वलोकन करना है तथा अपने चित्त को नियन्त्रित करना है। क्योंकि सहजयोग तथा इस पर सोना भी ऐसे ही था जैसे जमीन पर सोना। रात को मैंने बहुत से चूहों को अपने शरीर पर में पूर्ण स्वतन्त्रता है कि हम जैसा चाहें बने। जैसे पहले कहा जाता था, कोई बलिदान करने के लिए दौड़ते हुए पाया। में उन्हें देख रही थी। लोगों को कुछ त्यागने के लिए, हिमालय पर जाने के लिए बहुत चिन्ता हुई, उन्होंने कहा, कि ये चूहे आप पर कपड़े उतारकर ठण्ड में कॉपने के लिए तथा अन्य सभी प्रकार के उपद्रव करने के लिए नहीं कहा हाँ, उसमें से एक तो अभी भी मेरे पैर के नीचे है! वे रेंग रहे हैं और चक्कर लगा रहे हैं। मैंने कहा, कहने लग कि फिर भी आपको घबराहट नहीं हो जाता। शरीर, शरीर के महत्व को कम करना है और इसके लिए आपको चित्त अन्दर स्थापित करके, हर चीज़ में आनन्द प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा । अन्दर चित्त डालना बहुत आसान है क्योंकि आप रही? मैंने कहा, घबराने की कौन सी बात है, मैं तो बस उन्हें देख रही हूँ, मैंने एक साथ इतने अधिक चूहे कभी नहीं देखें। में तो इनका आनन्द ले रही थी। हैं लोग ध्यान धारणा करते हैं। मान लो आप बैलगाड़ी से जा रहे हैं, कोई फिर वे कहने लगे कि आप ऐसी चारपाई पर सो रहीं थी, कहीं कल तुम्हारे शरीर पर दर्द न हो जाए। मैंने व्यक्ति यदि रोल्जरायस पर १ कहा, नहीं नहीं, में तो आनन्द ले रही थी, ये चारपाई अच्छे झूले की तरह से है, इसमें आप झूल चलता है तो हर समय शिकायत करता रहेगा कि ये तो क्या पागलपन है, मुझे क्यों बैलगाडी से जाना है, भयानक, ये, वो। परन्तु कोई बालक यदि बैलगाड़ी से चलेगा तो वह इसका आनन्द उठाएगा। कहेगा कितनी अच्छी चीज है, ऊपर नीचे उछलती है, बहुत अच्छा लगता है, किस प्रकार बैल दौड़ रहे हैं, सुन्दर! बाहर की हर चीज़ को आप अच्छी तरह से देख सकते हैं! क्योंकि वह बालक शिव की तरह से अबोध हैं। जैसे बहुत सकते हैं। ये बहुत अच्छी है, बहुत ही रुचिकर। अगले दिन मैं बिल्कुल तरोताज़ा थी, वे लोग हैरान थे कि मैं कैसे इतनी तरोताज़ा हूँ । हे निड | तो शरीर की ये सब तकलीफें आदि, जिस प्रकार हम हर चीज़ को सुधारते रहते हैं, हर चीज़ के विषय में गिले-शिकवे करते हैं, हर चीज की शिकायत 10 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page10.txt Hindi Translation (English Talk) बार सभी लोंग ऐसा करेंगे और सम्भवतः यही फैशन करते हैं, ये सब मात्र मिथ्या हैं। यदि आप किसी गुरु के पास जाते तो सुझाया जाता कि आपको अत्यन्त कठोर जीवन बिताना होगा। अब आपको इतनी तपस्विता का रूप धारण कर ले। आप यदि इस प्रकार से अपना चित्त डालें, इस प्रकार से कि यह शरीर तपस्या के लिए नहीं है, हवन के लिए है, इसका है? इन सभी चीज़ों को आनन्द के सागर में विलीन उपयोग हवन के लिए होना है, यज्ञ के लिए कर दें, इन सभी सुख-सुविधाओं को आनन्द के होना है, तब आप अपने शरीर को बखूबी कह सागर में विलय कर दें। अब जीवन के ये जो सकते हैं कि अब सुधर जाओ। अत: सर्वप्रथम बनावटी मापदण्ड आ गए हैं, जैसे हमारे बाल विखरे आपने इसकी भर्त्सना करनी है, इसकी सभी हुए होने चाहिए नहीं तो आप पिछड़ गए हैं, फैशन माँगों की भत्त्सना करनी है, केवल तभी यह के साथ चलना आपके लिए जरूरी है, मैं सोचती हूँ परमात्मा के कार्यों में उपयोग करने की चीज़़ बनता है। मैं कहँगी कि भारतीयों की तुलना में पश्चिम के लोग इस मामले में कहीं बेहतर हैं, मैं अवश्य कहूंगी। भारतीय सबसे पहले अच्छे कमरे ले लेते हैं। वो तो इसके लिए लड़ने से भी नहीं चूकते? अब शनै: शनै: उनमें कुछ सुधार हो रहा है परन्तु अब भी कभी-कभी वो इस बात का शिकवा करते हैं, कभी उस बात का। मैं नहीं जानती कि किस प्रकार से, परन्तु ये बात में अवश्य कहूंगी कि पश्चिम में या आस्ट्रेलिया में लोग इन चीजों की चिन्ता नहीं करते। मुझे याद है, हम एक बार गणपति की आवश्यकता नहीं है। अब आपको करना क्या ग . कि ऐसी और बहुत सी मूर्खतापूर्ण चीजें फैशन में हैं और लोग उन्हें इसलिए मानते हैं क्योंकि यही मानदण्ड हैं। आप यदि ऐसा नहीं करते तो लोग सोचते हैं कि यह व्यक्ति ठीक नहीं है या 'ये कितना अजीब व्यक्ति है!" इसका अर्थ ये नहीं है कि आप स्वयं को अजीबोगरीब, हिप्पी या ऐसा ही कुछ गिड और बना लें। ते मछ इन मानदण्डों की अधिक चिन्ता करने की कोई आवश्कता नहीं है। इंग्लैण्ड में मैंने एक दिन देखा कि एक सज्जन बड़े परेशान थे, एक भारतीय ाक पुले गए थे, बहुत समय पूर्व। वहाँ पर सोने के लिए कोई प्रबन्ध न थे क्योंकि एम.टी.डी.सी. ने कमरे खाली नहीं किये थे। उन्होंने अगले दिन कमरे खाली सज्जन। मैंने पूछा, क्या हुआ, तुम इतने परेशान क्यों हो? कहने लगा, "मैंने गलती से मांस खाने के लिए मछली खाने वाला चाकू उपयोग कर लिया।" तो क्या? "सभी लोगों ने मुझे देखा।" मैंने कहा, ठीक है, तुमने वो चाकू किसी को घोंपा तो नहीं। कोई बात नहीं यदि तुमने मछली खाने वाले चाकू से मीट खा लिया। तो आप मछली वाला चाकू ये, वो सारी मूर्खता। आपके मानसिक सन्तुलन की तुलना में ये चीजें अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। तो ये लिप्साएं हैं। सर्वप्रथम तो हम कह सकते हैं कि इच्छा सारी छोटी-छोटी चीजें हमें परेशान कर सकती हैं। है, ये प्राप्त करने की इच्छा, वो प्राप्त करने की इसके विपरीत, मैं कहती, वास्तव में, मैंने खाया क्या? मैंने वास्तव में मछली खाई, बहुत अच्छा। मैंने कोई बन्धन तो तोड़ा। औपचारिक रात्रिभोज की कोई भी जाए तो भी हम सन्तुष्ट नहीं होते। तो हम अपनी प्रथा तो मैंने तोड़ी। तो यह बहुत अच्छा हुआ। अगली इच्छाओं का क्या करें? इन्हें शुद्ध इच्छा में विलीन करने थे तो उनमें से (पश्चिमी सहजयोगी) बहुत से उस रात समुद्र तट पर जाकर सो गए। कहने लगे, "हाँ श्रीमाताजी हमने बहुत आनन्द लिया। पूरा चाँद था। हमने वास्तव में इसका आनन्द लिया।" े उपयोग कीजिए। दूसरी बात ये है कि लोगों में अब भी इच्छा, सभी प्रकार की इच्छाएं। जैसे आपने देखा है इच्छा कभी पूर्ण नहीं होंगी और इच्छा यदि पूर्ण हो 11 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page11.txt Hindi Translation (English Talk) यह आपकी चौथी नाड़ी की पोषण करता है, कर दें, कुण्डलिनी की शुद्ध इच्छा में। जो खिलती है, आपकी बाई विशुद्धि के माध्यम तीसरी बात ये हैं कि हमारे सम्बन्धी भी हैं। ये बात मैंने पश्चिमी लोगों में देखी है विशेष रूप से जब उनके विवाह हो जाते हैं तो मैं नहीं जानती उन्हें से उठती है, आपके सहस्रार में प्रवेश करके कमल का रूप धारण करती है, कमलदल का। तब सहस्रार हृदय की सुगन्ध बिखेरने लगता है। क्या हो जाता है! अचानक वो सोचने लगते हैं कि अब हमारे विवाह हो गए हैं। तो अब वे रोमियो और जूलियट बन गए हैं, उनसे भी 108 गुणे अधिक रोमांचक! और भारतीय बिल्कुल दूसरी ओर हैं। मेरा शक्ति है, इसी चित्त को 'चित्ती' कहते हैं। अभिप्राय ये है कि उनके साथ भी ऐसा ही होता है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि ठीक है, ये एक घटना है, मेरा विवाह हो गया है परन्तु किसी व्यक्ति विशेष में लिप्त नहीं होना चाहिए। जैसा मैंने बहुत बार बताया है, जैसे पेड़ के रस को देखती है- प्रतिक्रिया नहीं करती परन्तु ये चैतन्यकण ऊपर उठाकर पेड़ के सभी हिस्सों का पोषण करके चित्त को इसकी वस्तुस्थिति में देखते हैं और जानते वापिस आना होता है, यदि यह किसी भाग विशेष सें लिप्त हो जाए तो पूरा पेड़ मर जाएगा और उसका इस प्रकार से हृदय और मस्तिष्क का समन्वय घटित होता है। तो ये चित्त स्वयं श्री शिव की सर्वव्यापी शक्ति, चैतन्य के हर कोने में यह चित्त विद्यमान है। जब यह चैतन्य, ये कोने गतिशील होते हैं, तब वास्तव में चित्ती सम्मानित होती है। यह चित्ती जब शान्त होती है तो यह देखती है, मात्र चित्त हैं कि यह क्या है और उसी के अनुरूप ये कार्य करते हैं। वे, श्री शिव, मात्र एक दर्शक हैं जो देवी (आदिशक्ति) के कार्य को देख रहे हैं । केवल वही वह भाग भी मर जाएगा। तो किसी सम्बन्ध में भी, जो भी आपको देना है, अपनी बहन को अपने भाई को, बच्चों को और अपनी पत्नी को, जो भी आपने देना है वो दैना है, परन्तु आपने उनसे लिप्त नहीं होना। तो अपनी लिप्साओं का हम क्या करें? इन्हें करुणा (compassion) में विलीन कर दें। करुणा सागर की तरह है। करुणा का स्वभाव ऐसा है जो कार्यान्वित करें, देवी के कार्य को, ताकि श्री शिव सभी खड्डे भरता है और सभी दोषों को दूर करता है। बस इसके अन्दर प्रवाहित होता दर्शक हैं और यदि वे नाराजू हो जाएं, यदि उन्हें लगे कि मनुष्य उनकी शक्तियों का सम्मान नहीं करते तो वे गतिशील होकर पूरे विश्व को नष्ट कर देते हैं। देवी की पूरी सृष्टि को नष्ट कर देते हैं। अतः यह आवश्यक है कि आप भी उनका साथ दें, इसे प्रसन्न हों और हम आध्यात्मिकता और सौन्दर्य के एक नए विश्व का सृजन कर सकें। परमात्मा आपको धन्य करे। चौथी नाडी आपकी उत्क्रान्ति के लिए है। रूपान्तरित जब आपका चित्त अत्यन्त पवित्र हो जाता है तो 12 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page12.txt MARATHI TRANSLATION (Hindi Talk) (Scanned from Marathi Chaitanya Lahiri) शिवांच्याविषयी असं सांगितले जातं की ते एकदम भोळे आहेत, खूप सरळ आहेत, कुंडलिनौच कार्य जे आहे, ते देवीचं कार्य आहे. देवीच या चराचर सृष्टीची निर्मिती करते आणि शेवटी आपल्यामध्ये कुंडालिनी होऊन शिवापयंत पोहोंचबून देते. शिवांचं आधी कृुण्डलिनीच्याच गतिला समगून घेतले पाहीने. जेन्हां कुण्डलिनीची नागृति होते, त्यावेळी ती सर्वप्रथम आपल्या शरीराला स्वाथ देते. कारण शरीराच स्वास्थ जरूरीचं आहे. आणि यामुळे आपले चित्त पहिल्यांदा आपल्या शरीराकडे जातें. सुरुवातीला सगळे सला हेच सांगतात की मला ही शारिरिक व्यथा आहे, मला हा रोग आहे. किंवा कांही लोक शरिराने हथ्टपुष्ठ असतात, तेव्हां ते मला त्यांची कौटुंबिक व्यथा सांगतात. कारण जेव्हा आपण कोक जागृत अवस्थेमच्ये असतो, तेव्हा आपलं चित, या सर्व गोष्टीकडे आकर्षिलेलं असतं. आणि यामुळे आपण लोक ब्याच त्रासांत असतो. त्यामुळे त्यांना सम्ून घेणं अतिशय कठीण आहे. पूजन होत असतांना शिवांचे गुणधर्म आपल्यामध्ये विकसित आले की नाही. है लक्षांत ठेवले पाहिने. यासांठी सर्वांत जर्स जर्स आपण सहजयोगांत याल, तस तसं आपल्याला हेच दिसेल की आपण आपल्या शरीराची किंवा संसारिवा मोष्टीची किंवा मानसिक दुखाचीच चर्चा करीत असतो. यासांठी पहिल्यांदा ही व्यवस्था केली गेली की शरिराचा पूर्णपणे त्याग केला जाईल. त्याच्याकडे लक्ष देतां नये त्याला कष्ट दिले पाहिजेत जर आपण पलंगावर झोपत असलो तर खाली उतरून आपण लाकडाच्या पलंगावर झोपा. मग त्यावरून आपण चटईवर झोपा. मग आपण जमिनीवर झोपा, मग दगडांवर झोपा. नंतर आपण दलदलीवर झोपा, अशा अनेक प्रकारे शरीराला पक्कं केलं जातं. ज्यायोगे शरीर तर आस देणार नाही कोणल्याही प्रकारे शरीराचबा आराम मान्य केला जात नाही.गस की, एक रात्र जागरण झालं, तर त्रास झाला, तर सात रात्री जागरण करा, मगत्रास झाला तर चौतीस रात्री जागरण कर. तशाच प्रकारे खाण्यापिण्याचे जर माणसाला खाण्याची खूप लालसा आहे, तर आपण एक दिवस वपवास करा, मग सात दिवस उपवास करा, मग चाळीस दिवस उपवास करा. जी गोष्ट आपल्याला आवडत नाही, ती गोष्ट खा. बाकी सर्व गोष्टी आपण सोडून द्या, इध्यवर की, आपण अन्न खाऊं नका, फळविळे खा. मग जर आपल्याला कपडयांचा खूप शोक आहे, तर आपण साधे कपडे वापरा. नंतर आपण हलके कपड़े वापरा. मग हिमालयावर जाआणि तिथे सर्व कपड़े उतरवून थंडीत कुडकुडत रहा. याचप्रकारे कोणाचा असा नखरा असतो की मला चांगलं घर हवं., हल्ली जशा सगळ्या गोष्टी फार जास्त येऊ लागल्या तशा आम्हा लोकांच्या इच्छा आणि प्रवृत्या वाडल्या, आमच चित्त নिथे जास्त लागत जातं. तर असंसांगीतलं होतं की आपण मोठया महालांत राहातां तर आता येऊन आपण झोपडीत रहा. मग झोपडीतही बाज घालत होते, त्यांतही ते आपल्याला असुरक्षित समजत होते, तर आतां तुम्ही जंगलांत येऊन राहा किंवा कोण्या तीर्थक्षेत्री जा, जसा काँचीची व्यक्ति तिर्थक्षेत्राला गेली तर काशीला गाईल, आणि काशीची गेली तर काँचीला जाईल, रस्त्यांत त्याला वाध खाऊन टाकेल, वाघाने सोडलं, तर साप चावेल. सापाने सोडलं, तर मगर खाऊन टाकेल! आणि तिथे पोहोचेपर्यंत हजारांमधून एखादी व्यक्ति तिथे पोहोचेल, अशा रितीने लोकांना कमी कमी करून मग आत्मसाक्षात्काराची विषय काढला. सहजयोगामध्ये उलटा हिशोब केला आहे. सहजयोगांत तुम्हांला ना घर सोडायचें आहे, ना दार, ना खाणं पिर्ण सोडायचं आहे, ना वस्त्रांचा प्रशन तुम्ही समळे जसे आहांत, तसेच राहायचं आहे. आणि यामध्येच तुमच्या कुंडलिनीचे जाप्रण होणार आहे. या स्थितीतच कुंडलिनी जागृत होईल. की पूर्वी मुगाजिन घालून, त्यावर बसून साधना करून मंग तुमची तपम्चर्याव्हायची. मग खूप दिवस उपाशी मरायचं, जोपर्यंत तुमची हार्ड बाहेर यायची, त्यानंतरही तुमची परिक्षा व्हायची, उलटं टांगलं जात होतं, विहीरीत टाकलं जायचं तुम्ही कुठल्या स्थितीत असता है बधीतलं नात होतं. दोन-तीन वेळां पाहौलं जायचं की कशा स्थितीत तुम्ही आहात, त्यानंतर कुठे जाऊन चर्चा ब्हायची! आतं सहनयोगामध्ये उलटा कारमार आहे. पहिल्यांदा तर आम्ही वरचं शिखर तयार केलं. त्यालाउघडलं-सहस्त्रारउघडलं, सहस्त्ार उधडून सांगीतलं की आतां आपण लोकांनीच आपल्याला ठीक करा. तरीसुध्दां आम्ही लोक समजें शकत नाही. सहजयोग फार कठीण गोष्ट आहे. जितकी 13 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page13.txt Marathi Translation (Hindi Talk) सरळ आहे, तितकीच कठीण आहे. कारण आपल्या आंतमध्ये अनेक नाडया आहेत आणि त्या नाडयांना उघडण्याची एकच पध्दत आहे की, आापलं चित्त ने आहे, ते इकड़े तिकडे भटकतां नये. तर, सहजयोगांत हे तर कोणी सांगत नाही, की तुम्ही खाणं पिणं सोडून द्या, तुम्ही उपवास करा आणि हिमालयांत थंडीत बसा. श पण काय केलं पाहीने, ज्यामुळे आपली प्रगती होईल? तर सर्वात आधी आपल्याला आपल्या अंरतमनांत जाऊन विचार केला पाहिजे की है मी काय करतो आहे? जसे आपण कुठे गेलात आणि पाहिलं की आपल्याला झोपायला जागा मिळत नाही, तरताबडतोब आपण जाऊन तकार करायला सुरूवात करणार की श्री माताजी, झोपायला जागा नाही मिळाली त्यावेळी असा विचार केला पाहिने की मी असं कां सांगतो आहे? कारण माइ या शरीराविषयी मी चिंता करतो आहे की, मला झोपयला नागा मिळाली नाही? मला नीट जागा मिळाली नाही आणि मी माझं चित्त त्यांतच घालत चाललो आहे! आतां अशावेळी असा विचार केला पाहिजे की, चांगलं झालं की, मला जागा मिळाली नाही आता झोपा जसे झोपायचे आहे तसे! आतां इथेच झोपा. आपल्या शरीराला झोपण्यासांठी चांगली जागा का पाहिले? जगांत किती लोक आहेत जे रस्त्यावर झोपतात. तूं कोण मोठा लागून गेलास, की तुला झोपायला चांगली जागा पाहिजे. बाकी लोक तर उभ्याउभ्या झोपतात. तूं उभ्याउभ्या कां नाही झोपत? आणि झोपणं सुष्दा काय नरूरी आहे? आपल्याला काय समजतो आहेस तूं? असा प्रश्न शरीराला करा. कोणी एक वेळ जेवलं नाही तर एकदम आपत्ति येणार. जर एक दिवस नेवण मिळालं नाही तर फार चांगलं झालं असा विचार केला पाहिजे. तस्स शरीराला धिक्कारले पाहीने. आज काल तर शरीराचे चोचले फारच जास्त निघाले आहेत जर्स आम्ही हे कपडे घातले तर याचं हे मैचिंग झालं पाहिजे. अशा तऱ्हेच्या आधुनिक गोष्टी निघाल्या आहेत आणि त्याचे जे परिणाम आहेत ते इतके जास्त कृत्रिम आहेत की आपल्याला समजत नाही की आपण लोक या कृत्रिमतेचे पूर्णपणे गुलाम होत चाललो आहोत याचा अर्थ असा नव्हें की आपण विक्षिप्त व्हा. याचा असा अर्थ नाही की की आपण विचित्र कपडे घालून फिराल, आपण हिप्पी व्हाल, असा याचा अर्थनाही, पण समजून घ्या. एखाद्या स्व्रीला एक मॅचिंग ब्लाऊज मिळाला नाही, तर तिला बाटतं ती कामातून गेली! एकदम खतम! पहिल्या जमान्यांत तर कोणी मॅचीग घातलच नव्हतं. आतां तर त्याला मेचिंग स्वेटर मिळालं नाही तर खैर समजा! कोण आपल्याला बघतंय आपण काय घातलंय म्हणून? आणि आपण कोण अशा विभूति लागून गेला की आपल्याला पाहून आज्ञाचक्र उघडेल? उलट आपल्याला बधून कोणा माणसाला पकड़च यायची! कलियुगांत जितका आधात झाला आहे एवढा झाला नाही. अशा प्रकारे एखादी गोष्ट सुरू होते. जशी विलायतेत आहे की आपले केस एकदम उलटे असले पाहिजेत, तर सगळे तसे केस घेऊन फिरतात. पण तुम्ही सहजयोगी आहांत कोणी विशेष आहांत. तुम्ही असं का करता? मी माझ्या शरीराचा इतका विशेष आराम को पाहाता मी तर एक विशेष आहे. विशेषचा अर्थ हा की आपल्या चित्तामध्ये ही नी चलबिचल आहे, तिला धांबावायचं. चित्ताला लीन करायचं चैतन्यामध्ये पण चित जर इकडे तिकडे जात असेल तर ते चैतन्यामध्ये कसे लीन होईल? आपल्या ह्यदयामध्ये, जिथे श्री शिवांचा वास आहे तिथे चार नाडया आहेत. त्यामघून एक नाडी मूलाधारापर्यंत जाते आणि त्याच्यापुढे नरक तर लोगअसंम्हणतात, यांत काय वाईट आहे? पण आपण सहजयोगी आहांत. आपण नरकामध्ये कशाला जाता? तर आपल्या चित्ताकडे लक्ष दिलं पाहिने की, मला ही वासना का आहे? जी मला नरकाकडे घेऊन चालली आहे. मी तर एक पाऊल बर ठेवून आहे आणि एक कबरीमध्ये. त्याची दूसरी नाड़ी आहे, ती नाडी आपल्याला इच्छाकडे घेऊन जाते. म्हणून बुध्दांनी साफसाफ सॉगितलं होतं की कोणतीही इच्छा करणे हेच आपल्या मृत्यूचे कारण आहे. आपली इच्छा बिलकुल संपली पाहिले. पण ती संपत नाही. फक्ति शुष्द इच्छा राहीली पाहिने. ते कसे होणार? शुध्द इच्छा अशा प्रकारे होऊ शकते की, आपण विचार करा, मला अशी इच्छा कां होते? या इच्छेकडे मी का धावतो आहे? अशा मला अनेक इच्छा झाल्या त्याचा मला काय फायदा झाला? तर, ते कांही मिळतंे आहे त्यांतच आनंद मानणं हे एका सहजयोग्याचं कर्तव्य आहे. कोणाला इच्छा झाली की मी आईच्या एकदम जवळ जाऊन बसावं. किंवा कोणाला इच्छा होते की आम्ही पहिल्यांदा तिथे जाऊन उभ रहावं. अशी इच्छा का झाली? कारण अज्ञानीत हे जाणलं नाही की आई प्रत्येक ठिकाणी आहे कुठे जायची गरज काय? तर, शुध्द इच्छेची नेव्हा आपण इच्छा करता, तेव्हां कुडालिनी नेव्हां चढते तेव्हां, ही जी इच्छेची नाडी खालच्या बाजूला झुकलेली असते ती उध्ध्वंगती होते. त्यांत शुष्द इच्छा भरली नाते. इच्छा माणूस करतो था विचाराने की, यावेळी मला सुख मिळेल, आनंद मिळेल, मिळत कांही नाही, 14 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page14.txt Marathi Translation (Hindi Talk) तर, या इच्छेला आपण आनंदामध्ये लीन करायच्च आहे. कारण श्री शिवांचे तत्व जे आहे. त्यांचा स्व्याव 'आनंद' आहे. म्हणून प्रत्येक गोष्टीमध्ये आनंद शोधला पाहिने. तर कोणत्याही गोष्टीचीत्रुटी वाटणार नाही, दोष बघायचे किंवा प्रत्येक गोष्टीमध्येहे असं असतं तर चांगलं होतं, खूप लोकांना संवय आहे. तो जो आपण विचार करीत आहांत असं व्हायला पाहिने, तो कार्यान्वित होऊ शकत नाही. त्याच्याशी जसं, कोणी सिनेमाला जातो, तिथे पहातो की कोणी ढोंगरावरून पडणार आहे. तर सांगतो की, 'अरे, तूं डोगरांवरून पडणार आहेस'. तर तो सिनेमा आहे. तो काय तुमचं बोलणं ऐक शकतो? अशा प्रकारे प्रत्येक गोष्टीचा ठेका घेऊन बसतात. आणि अशा तन्हेने आपल्या बुध्दीमध्ये पूर्णपणे फक्त विचारशृंखला तयार करतात. पण जे काही आपण बघता ते नुसत बघतो, ते नुसतं बघणं आलं. एका कटाक्षांतसुध्दां निरिक्षण होऊन जातें आणि आपल्या आंत चित्ताप्रमाणे होतं. पण ते बघण नसतं. त्याला निरंजन पहाणे म्हणतात. त्यांम्ये कांही रंजन नसतं. त्याबाबतीत कांही प्रतिक्रिया नसते. तर निरंजन बघणं है सुध्दा शिवाचंच तत्व आहे. शिवाच्या स्थानावरही पोहोचल्या आणि त्यांच्या मूर्तिचं दर्शनसुध्दां झालं, पण जो पर्यंत त्यांचा प्रकाश आमच्याआंत आला नाही तर ते सगळे व्यर्थच आहे. आता तिसरी नाडी आहे ज्यामध्ये प्रेम उभारून येतं. 'माझा मुलगा, माझी बहीण, माझे वडिल, माझा नवरा' सगळी जगमराची नाती। यांतही बरेच लोक गुंतून राहातात. सहजयोगांतही वर्षानुवर्षे ते सुटत नाही. त्याच त्याच गोष्टी। आतां है सागावचं की ही नाती व्यर्थ आहेत ही गोष्ट ठोक नाही. तर इतके ममत्व की, आपल्या मुलांसाठी तुम्ही कोणाचा खूनही करून टाकाल- काहीहीकरूं शकाल या ममत्वांसाठी, कोणी पतीसांठी, कोणी पत्नीसाठी अशाप्रकारे माणूस आपलं जीवन व्यर्थ करतो आणि नंतर बघतो की ज्यांच्यासाठी इतकं केलं तेच आपले दुश्मन आहेत. तेच आपल्याला त्रास देत आहेत. सर्वात जास्त दुःख तेच देत आहेत. आणि आपल्याला जास्त दुःख यामुळेच होत की यांच्यासाठी आम्ही इतके केलं आणि यांनी आमच्यासाठी काय केलं? पूर्वीच्या जमान्यांत सांगत होते की सगळयांचा त्याग करा. घराचा त्याग करा. मुलांचा त्याग करा. पत्नीचा त्याग करा. सगळे सोडून जंगलामध्ये जाऊन एकांतवास करा. सहजयोगांमध्ये असं नाही. सहजयोगांमध्ये कोणाचा त्याग करायचा नाही. सगळयांना आपलं करायचे आहे. कारण सहजयोग एक व्यक्तिगत कार्य नाही कीं आपण नाऊन एकांतात बसले आणि तपस्या केलौ आणि खूप उच्च झाले तर काय फायदा झाला ? आपण अवधूत झालांत तर काय फायदा झाला? हा एक असा माणूस असला तर तो चांगलं भाषण देऊ शकतो. असं होऊ शकत की थोडी फार चैतन्याची बर्षा करू शकतां. पण त्यामुळे सारं जग तर ठीक होऊ शकत नाही.आपल्याला तर सारं जण ठीक करायच आहे. तर असा विचार करायचा की मी आपलेपणा फक्त थोडया लोकांमध्ये सिमीत कां करून ठेवतो? एका झाडामध्ये नर पाणी सोडलं, तर त्याचे जे सत्व येत ते झाडाच्या प्रत्येक फांदीमध्ये, प्रत्येक फलांमध्ये, प्रत्येक फळामध्ये जातं आचि परत येतं. आणि परत आलं नाही तर ते उडून जातं. पण जर ते एका फूलांतच अडकलं तर ते फूलही मरेल आणि झाडही. तर ज्याला निव्ध्याज्य प्रेम म्हणतात की, देवी जेव्हां कोणासांठी कांही करते तेव्हा त्यांच्या है लक्षात राहात नाही की है काही केलं होतं, अर्स त्याने का केलं. करायला नको होतं. ते करूणामय आहे. करूणेच्या सागरामध्ये लीन झालं आहे. ज्याला त्रास आहे असं कोणी आलं की तो म्हणतो याचा त्रास ठीक करा, खरं तर मला माहीत असतं काळजी करण्यांत अर्ध नाही पण त्याचे खूप गंभीरतेने ऐकते. त्यांच्या मध्ये मी उतरू शकत नाही.तर तो त्यांचा दोष नाही. त्यांना उतरल पाहिजे. या करूणांमध्ये उतरलं पाहिजे. करूणा करूणेंसाठी असते. कांही काम, कारण अधवा नात्यांसाठी नसते. कोणी असेल मोठी असामी किंवा छोटी व्यक्ति किंवा भिकारी, कोणीही असेल, जसा समुद्र कुठेही खडडा झाला की तो पाणी भरून टाकतो. कुठेही कांही त्रुटी असूंदै, भरून टाकतो. करूणा यासांठी नाही की त्याच्याकडून मागायचं आहे, घ्यायचं आहे. ती यांसाठी की, तो स्वभावच आहे तो स्वभाव असल्याने 'स्व' म्हणजे आत्मा आत्म्याचा भाव. जेव्हां तो आत्म्याचा भाव आपल्यामध्ये येईल-फक्त करूणा. मग या सर्व गोष्टी तूटन जातील की दिल्लीत राहाणारे -मुबंईत राहणारे वगैरे. कांही लक्षात रहात नाही. कांही महत्व राहात नाही. आणि प्रत्येक व्यक्ति कोण आहे है जरूर आपल्या लक्षात रहात. की हा कोण आहे. त्याला कायत्रास आहे, एकदम पाहिल्याबरोबर लक्षांत येईल. आपली नजर कुठे गेली? नजर जर है शोधात असेल की दिल्लीवाला कोण आहे. कलकत्तेवाला कोण आहे, जर ही आपली नजर शोध घेत असेल की करूणा कुठे कुठे चालली आहे. कोणाकडे खेचते आहे मला तर समजेल की दुःखी आहे. कोणी साधक. फार मोठा साधक असतो. एकदम हृदय खेंचलं गेलं पाहिजे त्या व्यक्तिकडे आणि ही करूणा तुम्हांला सुमतिपण देते आणि स्मृतिसुध्दां देते. कारण जितकी निकटता करूणेमुळे येत, तेव्हढी दुसऱ्या कसल्याही नात्याने येत नाही. अशी विशेष गोष्ट आहे करूणा. आणि या करूणेमध्ये 15 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page15.txt Marathi Translation (Hindi Talk) स्वतःला लीन करा. या ममत्वाला लीन करा. हा सहजयोगामध्ये उन्नतिचा मार्ग आहे. कारण मी कधी सांगीतलं नाही. आपली मुलं लोडून द्या, घर सोडून धा. हा सहजयोग आहे. तुम्ही कसेही असला. कुठेही असला आंतल्याआंत वाढत ना. ते आंत पहिल्याशिवाय तर नाही होणार. तर मग असा विचार करायचा की काय मी करूणामय आहे का? कोणाला जर कांही असेल, आणि त्याला सांगीतलं यावेळी होक शकत नाही. खप वाईट बाटून घेतात. म्हणजे सगळ ममत्व स्वतःच्याच बदल, मला काय मिळणार उनाहे? सीकाय मिळवेन?मला काय लाभ होईल. पण ममत्व बाहेर नाही. कोणीही या दरशत, कसंही असूदे करूणा आपला रस्ता स्वतःच शोधून काढते, खूप सुंदररित्या आणि फार आनंददायी आहे करूणा मिळवणं. त्यांत वाहून जाणं. करूणेमध्ये अनेक प्रकारची कार्य होणे. आनंदायीतर आहे पण या आनंदात लोभ असतनाही की हा आनंद मलापरतपरत मिळेल. त्याची नाणीव नसते, केलं. केलं. झालं. झालं. याच प्रकारे जर्स कांही काम आहे. केलं. आतां चौथी नाडी आपल्यानध्ये जी आहे, ती अत्पंतमहत्वपूर्ण आहे. हृदयामध्ये ती चौथी नाडी. कुंडलिनीच्या जागरणानेच नागृत होते. आणि डाव्या विशुष्दीमधून निधून मस्तकांत जाऊन कमळाला उमलबिते. नेव्हा आपलं चित्त या सगळ्या गोष्टीमध्ये लीन होऊन नातं जसा कांही या कमलामध्ये जीव येतो, त्यामध्ये शक्ति येते किंवा असं समजा की, एक झाड़ावर पाणी पडलं तर ते जसं आपोआप वाढते, त्याप्रमाणे असं शुध्द चित्त क्या माणसाचं होतं, त्याच्या हृदयाची कळी उमलते आणि ते कमलरूप होऊन सहस्वावर आच्छाटून राहतं. मग त्याचे तत्त्व, त्याचा सुगंध, चारी बाजूला पसरतो. आणि अशी व्यक्ति एकदम नतमस्तक होऊन जाते. एकदम नतमस्तक होऊन सर्वासमोर वाकूत रहाते. कोणी जर त्याला म्हणाले की तुम्ही माझे मोठे काम केले, मोठा चमत्कार केला तर ती गोष्ट त्याला स्पर्श करीत नाही. जशा आनंदाच्या लाटा बाहेर काठावर जाऊन नाद करतात पण परत येत नाहीत, त्याच प्रकारे ज्या व्यक्तिची ही स्थिती होते त्याचं सारं कार्य बाहेर नाद करते. आवान करते. त्याचा परिणाम बाहेर दिसून येतो. काठावर ह्याच्या आंतमध्ये त्याचा कांही परिणाम येत नाही., ध्यानही येत नाही. विचारही येत नाही. ने काही आपले निनाद आहेत ते दुसऱ्या काठाला नाऊन स्पर्श करतात. मला स्पर्श करीत नाहीत. मला येत नाहीत. त्यामुळे असं होऊ शकतं. आंत बसलेल्या देवीदेवता खुष होतात आणि त्या चैतन्य वाहवं लागतात. किंवा काही तुम्ही माझा जयजयकार गात आहांत. कदाचित मी तिथे नसतेसुध्दां, जेव्हां आपण स्तुति गाता, खुष होतो, आपल्या आंतल्या देवतासुध्दां प्रसन्न होतात आणि आपल्यासाठी अनंत नाडयांमधून कितीतरी, जसे तेज पुंज प्रकाशाचे किरण आपल्यामध्ये सोडतात. किती मेहनत करतात आपल्यांसाठी. तर आपल्यांसाठीपण आवश्यक आहे, की जर आपल्यासाठी एवढी मेहनत करतात. तर आपणही या शुष्दतेला मिळवंले पाहिने. तर पहिल्यांदा जे शरीर ज्याला आपण धिक्कारत होतो. त्याला आपण मानत नव्हतो, तेच शरीर एक बज्ञ होऊन जातं. यज्ञ म्हणजे असा की, आतां आपल शरीर आहे, होतीय त्रास, तर याला त्रास होणारच आहे, कारण हा यज्ञ आहे ना, चांगली गोष्ट आहे. ज्याप्रमाणे यज्ञांसाठी काष्टठांचे जळणं आवश्यक आहे त्याचप्रकारे या शरीराचं चालणं देखील यज्ञामध्ये आवश्यक आहे. सहजयोगामध्ये सर्वांत मोठी गोष्ट ही आहे की, हे जे कृतयुग सुरु झालं, तुमच्या पूर्वपुण्यांमुळे, आपल्याला जास्त त्रास तर काही होतंच नाही. सगळया गोष्टी समोर येऊन उभ्या राहतात सगळा साक्षात्कार होत राहतो. तुम्हीं म्हणतां चमत्कार होत आहे. सगळ्या गोष्टी तुम्हाला सुलभतेने मिळतात. तुमची बहुतेक कामं सरळ सहज होडन जातात. शोभना सुलभा गति ! म्हणजे आपली शोभा आणि मान या प्रकारचा आहे; जीवनांत अत्यंत सुलभ रित्या आपण याला प्राप्त कछ शकता. कोणतंही अशोभनीय काम करण्याची गरज नाही, तर ही एक प्रकारची एक फार सूक्ष्म मायासुद्धा आहे. यांत असा विचार करता नये की हे सगळे चमत्कार आपल्यांसाठी होत आहेत कारण आपण कोणी फार मौठे सहजयोगी आहोत. पण असा विचार कैला पाहिजे आपल्या अंतर्यामी परमात्म्याबद्दल, शिवाबद्दल, कुंडलिनीबद्दल विश्वास दृढ़ होईल. यांसाठी चमत्कार होत आहेत. आणि याला दृढ करण्याचे कारण है आहे की, आपण आपल्या चिताला शुद्ध करायला पाहिजे. कारण शिव चितस्वरूप आहे. त्यांच्या चिताच्या शक्तीला 'चित्ती" म्हणतात. ते चित्त आहे. म्हणजे, ब्या चैतन्याबद्दल आपण जाणता, त्या चैतन्याचं जे चित्त आहे तो श्री शिवांचा प्रसाद आहे. ते शिवाचं तत्व आहे. याचा अर्थ साच्या जगामध्ये त्याचं चित्त पसरलं आहे. आणि जेव्हां.तुम्ही म्हणता, चमत्कार झाला, ही गोष्ट घटित झाली, तेव्हा हे जाणलं पाहिजे, हे जे चित्त आहे, ज्याला आपण चित्ती म्हणतो, त्याने हे कार्य केलं आहे. अणू, रेणू प्रत्येक गोष्टींत त्याचें चित्त आहे. पण चित्ताचा अर्थ असा होतो की ते साक्षी आहेत. पहात आहेत. आणि कार्यान्वित ने आहे ते ब्रह्मचैतन्य आहे. पण जसा संगीतकार समोर बघून वानवितो, तशा प्रकारचं द्रह्मचैतन्य आहे. चित्ताच्या दृष्टीला पाहूनच कार्यान्वित होतं. त्या चितोला ब्रह्मचैतन्य जाणतं. आणि या कार्याला तेव्हा करतो जेव्हा त्या चितीला बघून ते योग्य प 16 19910209_Mahashivaratri Puja_Delhi.pdf-page16.txt Marathi Translation (Hindi Talk) समजतं. ब्रह्मचैतन्य देवीची शक्ति आहे आणि ती कार्यान्वित आहे आणि ती त्या बघणाच्याला जाणते आणि त्या शक्तीची पूर्ण वेळ हीच लीला आहे की त्या बघणाच्याला खूष ठेवायचं आहे. म्हणून कधी कधी तुम्ही म्हणता, की श्रीमाताजी अशी गडबड कां झाली ? अशांसाठी झाली की ती जी चिती होती त्याचं रुप बदललं होतं. जर आपण आज शिवाची पूजा करीत आाहांत तर या मी ज्या चार नाड्या सांगितल्या त्यांच्याकडे लक्ष द्या. आणि ज्या प्रकारे मी तुम्हाला सांगितलं आहे, की कशा प्रकारे आपल्याला या चार गोष्टींमध्ये चित्ताला लीन केलं पाहिने, ही कांही मोठी गोष्ट नाही पण सूक्ष्म आहे. आणि नंतर तुम्ही मला सांगा, या प्रकारे मन आंत करुन स्वतः स्वतःला विचारा. तपस्या केली आहे. वार्तालाप केला आहे आणि जे आपल्या चित्ताला शुद्ध केलं आहे. त्यामुळे आपल्याला एकदम कळेल की तुम्ही शिवाच्या सागरामध्ये पूर्णपणे बुडून गेला होता. आणि अशा दशा आपणा सर्वाची व्हावी, अशीच माझी एक शुद्ध इच्छा आहे. 17